नवरात्र के चौथे दिन माता कुष्मांडा के अलौकिक स्वरूप के दर्शन को उमड़े भक्त, रोग-शोक और दुखों का नाश करती हैं देवी
वाराणसी। नवरात्र के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की आराधना का विधान है। उन्हें सृष्टि की आदिस्वरूपा माना जाता है। माता के स्वर्ण श्रृंगार स्वरूप के दर्शन को भक्तों का रेला उमड़ पड़ा। भक्तों के स्वागत के लिए देवी दरबार में रेड कारपेट बिछाई गई है। माता के दर्शन से रोग-शोक और दुखों का नाश हो जाता है और सुख-समृद्धि व सभी प्रकार के भय से मुक्ति मिल जाती है।
ऐसी मान्यता है कि देवी कुष्मांडा ने अण्ड यानी ब्रह्मांड की रचना की थी, जब चारों ओर केवल अंधकार था। सृष्टि की शुरुआत में उनके इस दिव्य हास्य से ब्रह्मांड का जन्म हुआ, इसलिए उन्हें 'कुष्मांडा' कहा जाता है। देवी की आठ भुजाएं हैं, जिनमें वे क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र, और गदा धारण करती हैं। आठवें हाथ में वे जप माला रखती हैं, जो सभी सिद्धियों और निधियों का प्रतीक है। उनका वाहन सिंह है, और उन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है, जो संस्कृति में 'कुष्मांड' कहा जाता है।
देवी कुष्मांडा का वास सूर्य मंडल के भीतर है और उनके शरीर की कांति सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। उन्हीं के तेज से दसों दिशाएं आलोकित होती हैं और समस्त प्राणी व वस्तुएं उनके तेज से प्रभावित होते हैं। उनकी पूजा करने से भक्तों के रोग, शोक और दुखों का नाश होता है। साथ ही, आयु, यश, बल, और आरोग्य की प्राप्ति होती है।
देवी कुष्मांडा थोड़ी-सी भक्ति और सेवा से ही प्रसन्न हो जाती हैं और भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को वे सुगमता से परम पद की प्राप्ति करवाती हैं। उनकी उपासना करने से साधक को अल्प समय में ही उनकी कृपा का अनुभव होता है, और उसे मानसिक व शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। नवरात्रि के चौथे दिन श्रद्धालुओं को इस देवी की विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए ताकि उन्हें सुख, समृद्धि और उन्नति की प्राप्ति हो सके। देवी कुष्मांडा की आराधना हमें सृष्टि के मूल स्वरूप से जोड़ती है और जीवन में सकारात्मकता का संचार करती है।
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