अब नजर नहीं आती चुनाव की वह रौनक, डिजिटल जमाने में बदला प्रचार का तरीका, बैनर पोस्टर की जगह सोशल मीडिया बना सहारा

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वाराणसी। एक समय था, जब चुनाव की घोषणा होते ही शहर बैनर और पोस्टर से ढंक जाता था। पूरे लोकसभा क्षेत्रों में झंडे और बैनर का ही शोर होता था। चंहुओर जिधर नजर जाती थी, दीवारों पर प्रत्याशी अपना प्रचार लिखवाए हुए रहते थे। लेकिन अब तो चुनाव जीतने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये जा रहे हैं। समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिये जाते हैं। सोशल मीडिया का भी सहारा लिया जाता है। पहले जहां पेंटरों और बैनर बनाने वालों की चांदी रहती थी, लेकिन अब तो उनका तो ठन-ठन गोपाल हो गया है। कहने में गुरेज नहीं कि अब झंडा-बैनर का शोर थम गया है और सिर्फ सोशल मीडिया के माध्यम से मतदाताओं को रिझाने पर जोर चल रहा है।

दरअसल, चुनाव आयोग के डंडे ने चुनाव प्रचार का तरीका बदल दिया है। अब झंडा और बैनर नहीं दिखाई देते हैं। लाउडस्पीकर का शोर भी थम गया है। चुनावी नारों से रंगी दीवारें भी अब नजर नहीं आती हैं। इस बदलाव ने आम लोगों को काफी राहत दी है। अब चुनाव का ज्यादातर जोर मोबाइल फोन और सोशल मीडिया पर दिखाई देने लगा है। लोकसभा चुनाव में दो चरण का मतदान सम्पन्न चुका है। तीसरे चरण समेत सात चरण के लिए चुनाव का जोर पकड़ने लगा है। लेकिन माहौल को देखकर ऐसा लग ही नहीं रहा कि लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं। यह सब बदलाव चुनाव आयोग की सख्ती के चलते संभव हुआ है।

पुरनिए बताते हैं कि पहले के चुनाव प्रचार के तौर-तरीके एवं आज के चुनाव प्रचार के तौर तरीके में काफी बदलाव आ चुका है। चुनाव की घोषणा होने के साथ ही लोग अपने समर्थित राजनीति दल या प्रत्याशी के झंडे बैनर को उत्साह के साथ लगाते थे। दीवारों पर नारे लिखकर राजनीति फिजा को रंग चढ़ाया जाता था। राजनीतिक दलों की ओर से तैयार कराए गए गाने गली-मोहल्लों के नुक्कड़ पर लगने वाले लाउडस्पीकर से सुनाई देते थे। राजनीतिक दल बच्चों को बिल्ले बांटते थे, लेकिन अब ऐसा नजर नहीं आता। 

70-80 के दशक का चुनाव नहीं होता था खर्चीला

आजादी के बाद लोकसभा के कई चुनाव देखते चले आ रहे पुरनिए बताते हैं कि वर्तमान में जनता जनार्दन से वोट की अपील करने के लिए प्रत्याशी करोड़ों खर्च कर देते हैं, लेकिन 1970 और 1980 के दशक में चुनाव प्रचार इतना खर्चीला नहीं होता था। तब महंगी-महंगी गाड़ियां चुनाव प्रचार में नहीं इस्तेमाल की जाती थीं। न ही बड़े-बड़े पोस्टर-बैनर या पर्चे छपवाए जाते थे। उम्मीदवार रिक्शा, बैलगाड़ी या फिर जीप पर सवार होकर ही जनता से वोट मांगने निकल पड़ते थे। दीवारों पर गेरूआ से लिखकर अपना प्रचार-प्रसार करते थे। अगर कोई पैसे वाला उम्मीदवार कभी एंबेसडर से प्रचार करने निकल पड़े तो उसे देखने को भारी भीड़ जुट जाती थी।

तब मतदाताओं का भी उत्साह देखने लायक होता था

1970 और 1980 के दशक के चुनावी माहौल को याद करते हुए वे कहते हैं कि पहले प्रत्याशियों के साथ-साथ मतदाताओं का उत्साह भी देखने लायक होता था। वे बैलगाड़ियों पर बैठकर वोट देने जाते थे। जगह नहीं मिलने पर पैदल ही मीलों लंबा सफर तय कर लेते थे। तब ढाई-तीन लाख रुपये में पूरा क्षेत्र झंडे-बैनर से पट जाता था। मतदान केंद्रों पर लंबी कतारों में खड़े होने में उन्हें कोई परेशानी भी नहीं होती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो चुनाव प्रचार भी हाईटेक हो गया है। इस पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं। पैसा कहां खर्च होता है, दिखाई नहीं देता। चुनाव प्रचार में लग्जरी वाहनों का काफिला चलता है। 

वे कहते हैं कि अब तो मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में तरह-तरह के प्रलोभन दिये जाते हैं। मतदाताओं को गुमराह करने में रुपयों का दुरुपयोग होता है। उनके मुताबिक सांसद और विधायक निधि भ्रष्टाचार की जड़ है। दोनों निधियों से होने वाले खर्च की गंभीरता से जांच हो तो बहुत बड़ा भ्रष्टाचार उजागर होगा। केंद्र में सामानों के आयात-निर्यात में खेल होता है। धर्म-जाति के नाम पर बड़ी-बड़ी पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। वोट पाने के लिए आए दिन नए-नए शिगूफे छोड़कर नेता सत्ता के शिखर तक पहुंचना चाहते हैं। लेकिन 1980 के दशक तक ऐसी राजनीति कतई नहीं होती थी।

राजनीतिक दलों ने बनाई सोशल मीडिया टीम

पुरनिए बताते हैं कि समय बदलने के साथ अब चुनाव प्रचार का तरीका भी बदल गया है। अब राजनीतिक दलों ने अपनी सोशल मीडिया टीमें बना ली हैं। इन पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिया जाता है। इन टीमों के माध्यम से लोगों के सोशल मीडिया एकाउंट पर प्रचार किया जाता है। प्रचार के लिए ऐसे-ऐसे शब्दों का चयन किया जाता है कि पूछिए मत। धर्म-जाति के नाम पर प्रचार होने लगे हैं।

बिल्ला-स्टीकर गुजरे जमाने की बात

पुरनिए बताते हैं कि पहले के चुनाव में हर राजनीतिक दल बिल्ला, झंडा और स्टीकर बांटते थे। जिस नेताओं का काफिला आता बच्चों की टोलियां उसी में शामिल हो जाती, लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। चुनाव का शोर कम हो गया। यह अच्छी बात है। पता ही नहीं चल रहा कि चुनाव हो रहे हैं। साथ ही चुनाव के दौरान पहले चौक-चौराहों, गली-मोहल्लों, लोगों के घरों में झंडे, बैनर और पोस्टर लगे दिखाई देते थे, लेकिन अब ये रौनक गायब सी हो गयी है। ऐसे में यह लोकसभा चुनाव साइलेंट चुनाव के रूप में लड़ा जा रहा है।

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