नागपंचमी विशेष: काशी के नागकूप में महर्षि पतंजली ने की थी नागेश्वर महादेव की स्थापना, 80 फीट नीचे स्थापित है शिवलिंग
वाराणसी। काशी में नागपंचमी पर नागकूप के पूजा का विधान है। वाराणसी के जैतपुरा में नागकूप काफी प्राचीन मंदिर है। इसका वर्णन स्कंद पुराण के काशी खंड में वर्णित है। यहां पर कारकोटक वापी (नागकुंआ) मंदिर में महर्षि पतंजलि द्वारा स्थापित नागेश्वर महादेव हैं। इस विशाल कुंड के भीतर कुआं है। इस कूप में 80 फुट नीचे नागेश्वर महादेव विराजमान हैं। इन दिनों कूप में भारी जल भरा हुआ है। नागकूप मंदिर के महंत तुलसी पांडेय ने बताया कि इस मंदिर पौराणिक इतिहास है। इस कुंड के भीतर विशाल कुआं है।
मान्यता है कि जिस समय राजा परीक्षित को नागदंश का श्राप मिला था, उस समय कारकोटक नाग अपने जीवन रक्षा के लिए यहां से नागलोक (पाताल लोक) गये थे। ऐसा माना गया है कि यहां से पाताल लोक जाने का मार्ग है। यहां पर 80 फुट नीचे स्थापित नागेश्वर महादेव का शिवलिंग है, जिनकी स्थापना महर्षि पंतजलि ऋषि ने की थी। जैतपुरा का नागकूप आज भी अपनी प्राचीनता व ऐतिहा्सिकता को समेटे हुए हैं। यहां पर कभी पंतजलि ऋषि ने महाभाष्य की रचना की थी। नागपंचमी के दिन यहां पर शास्त्रार्थ की परम्परा रही है। जो आज भी कायम है। यहां पर नागकूपेश्वर का दर्शन तथा नागकूप के जल से आटमन करने से सर्प के डसने का भय नहीं रहता है।
नागपंचमी के दिन होता है उत्सव
जब राजा परीक्षित को नागदंश का श्राप मिला, तब उनके पुत्र जनमेजय ने सभी नागों की हुति को लेकर यज्ञ किया था। उसी समय देवी के पुत्र अगस्तिक मुनि ने श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि के दिन इस यज्ञ हो रोकवा दिया था। इसमें जो नाग जल गये थे उनको दूध से ठंडा किया था। इसीलिए यहां पर नागपंचमी के दिन लोग दूध व लावा चढ़ा कर जो भी कामना करते हैं वह पूरी होती है। यहां पर दर्शन-पूजन करने से किसी को कभी भी नागदंश नहीं होता। यहां पर सदियों से शास्त्रार्थ की परम्परा भी चल रही है।
नागकूप पर नागपंचमी के दिन होता है शास्त्रार्थ
अन्नपूर्णा मंदिर के महंत शंकर पुरी महाराजा पुजारी ने बताया कि इस नागकूप में हर नागपंचमी के अवसर पर विद्वानों का शास्त्रार्थ भी होता है। इसमें शहर भर के कई वरिष्ठ विद्वान शामिल होते हैं। इसकी शुरुआत अन्नपूर्णा मंदिर के पूर्व महंत स्व. रामेश्वरपुरी महराज ने की थी। यहां पर शास्त्रार्थ में विजयी विद्वानों को पुरस्कृत भी किया जाता है। यह परम्परा आज भी लगातार चल रही है।
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