कालांतर में इस नाम से जाना जाता था रामनगर, रामलीला को लेकर प्रचलित हैं दंत कथाएं 

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- काशीराज उदितनारायण सिंह के शासनकाल 19वीं सदी में शुरू हुई थी रामलीला
- पांच किलोमीटर के दायरे में रामचरित मानस के प्रसंगों का किया जाता है मंचन 
- लालटेन की रोशनी में आयोजित होने वाली रामलीला देखने उमड़ते हैं सैकड़ों नेमी  

रिपोर्टर- ओमकारनाथ 

वाराणसी। रामलीला और रामनगर इस तरह से एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं कि अक्सर ही लोग ऐसा मान लेते हैं कि "रामलीला मंचन की वजह से इस नगर का नाम रामनगर पड़ा होगा"। वैसे कालांतर में रामनगर का नाम व्यासकाशी भी था। रामलीला की शुरुआत को लेकर तमाम दंतकथाएं व किंवदंतियां विद्यमान हैं, तथापि निर्विवाद रूप से रामनगर की रामलीला काशिराज उदित नारायण सिंह के शासनकाल में प्रारम्भ हुई। महाराज उदित नारायण सिंह का शासन काल 1796 से 1835 ईस्वी तक था। इस तरह से रामलीला की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ से मानी जा सकती है। 

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पांच किमी के एरिया में मनस प्रसंगों का होता है मंचन 
रामनगर की विश्व प्रसिद्ध रामलीला अनंत चतुर्दशी से शुरू हो गई। 230 वर्षों से अधिक का इतिहास समेटे यह रामलीला रामनगर के 5 किलोमीटर के एरिया में अगले एक महीने तक मंचित होगी। ओपन स्टेज पर महाराज बनारस के सानिध्य में होने वाली इस लीला में किस भी प्रकार के चकाचौंध का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। नेमियों के करतल पर लीला का मंचन होता है और श्रद्धालु काशी नरेश और देव स्वरूपों का दर्शन कर खुद को धन्य मानते हैं। शाम 5 बजे शुरू होने वाली यह लीला देर रात तक मिट्टी के तेल (केरोसिन आयल) के लालटेन की रोशनी में संपन्न कराई जाती है।

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कालांतर में रामनगर का नाम था व्यासकाशी
पौराणिक आख्यानों के अनुसार जब महर्षि वेदव्यास काशी में आतिथ्य की उपेक्षा से रुष्ट होकर गंगा के पूर्वी तट पर लोलार्क के आग्नेय कोण में स्थित तपोवन में नई काशी बनाने को उद्यत हुए, तब शिवजी ने विनती कर उन्हें रोका तथा आदर के साथ काशीवास की अनुमति प्रदान की। तब से यह स्थान व्यासकाशी नाम से प्रतिष्ठित हुआ। बाद में रामनगर नाम से जाना गया। आजादी से पूर्व 200 वर्षों तक रामनगर काशी की राजधानी रही। काशिराज के संरक्षण, भक्त रूपी जनता और आयोजकों के समर्पण से शुरू की गई रामलीला धीरे - धीरे विश्वप्रसिद्धि के स्वर्णिम सोपान चढ़ती गई और आज यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में शामिल होने का भी गौरव प्राप्त कर चुकी है।

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चकाचौंध की दुनिया से अभी भी दूर है रामनगर की लीला
रामनगर की रामलीला का इतिहास 230 वर्ष से अधिक का बताया जाता है। यह रामलीला किसी भी हाल में चकाचौंध में नहीं होती। नेमियों की रामचरितमानस की चौपाइयों पर देव स्वरुप मंचन करते हैं, जिन्हे किले में बने आवास से कन्धों पर बैठाकर लीला स्थल तक लाया जाता है। इसके बाद काशी नरेश की सवारी हाथी पर निकलती है जो लीला स्थल पहुंचती है। स्थानीय लोगों के अनुसार पहले यह लीला सिर्फ एक जगह बरईपुर में होती थी पर एक दिन का मंचन किसी कारणवश काशी नरेश नहीं देख पाए तो वो लीला को रामनगर ले आए। यहां यह लीला एक माह तक अलग-अलग मंचन स्थलों पर मंचित की जाएगी, जिसमें रौशनी के लिए लालटेन महताबी का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा इसी भी प्रकार के साउंड सिस्टम का भी इतेमाल नहीं होता है।

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परंपरागत तरीके से पेट्रोमैक्स का आज भी किया जाता है प्रयोग
बता दे कि जब से लीला प्रारंभ हुई है तब से शाम ढलने के बाद से इन्ही लालटेन (पेट्रोमैक्स) की रोशनी में की जाती है। लगभग 15 से 20 (पेट्रोमैक्स) जगह-जगह जलाया जाता है। यह भी लीला का एक अभिन्न अंग होता है। इसे जलाने के लिए लगभग तीन से चार लोग लगे रहते हैं और इन्हें उचित स्थान पर लगाने के लिए भी लगभग चार लोग मौजूद रहे है। इन (पेट्रोमैक्स) को लीला के आसपास जलाकर उन्हें लीला स्थल पर ले जाकर डंडो के सहारे लगाया जाता है। इन्हीं लालटेन (पेट्रोमैक्स) की रोशनी में सारा मंचन किया जाता है। यह लीला जब से शुरू होता है अंतिम (30) दिनों तक इस जलाया जाता है।

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पात्रों की आवाज लगभग जाता हैं आधा किलोमीटर दूर तक
पत्रों के आवाज सुनने के लिए किसी भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल नहीं किया जाता। चुप रहो सावधान बोलते ही चारों तरफ सन्नाटा छा जाता है। इन पत्रों के चयन के दौरान ही आवाज सहित अन्य चीजों को भी  चेक किया जाता है। इन पत्रों की आवाज इतनी बुलंद रहती है कि लगभग सन्नाटे में आधा किलोमीटर दूर तक सुनाई देती है। इसके साथ ही जो नेमी पहुंचते हैं अभी उनको हाथों में भी रामायण होता है। वहां पर पढ़े जा रहे हैं चौपाइयां और पाठ को नेमी लोग पढ़ते हैं। लोग एक साथ पाठ का वाचन करते हैं। जिसके कारण मंचन होने वाला एक-एक चीज लोगों को सुनाई देता है।

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