काशी का जगन्नाथ मंदिर : पुरी के समान परंपराएं, निकलती है भव्य रथयात्रा, जानिये महात्म्य 

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वाराणसी। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी न केवल शिव की त्रिशूल पर बसी हुई दिव्य भूमि है, बल्कि यहां हर धर्म और संप्रदाय के लोग आस्था और संस्कृति के साथ निवास करते हैं। काशी की पहचान उसकी प्राचीनता, धार्मिकता और विविधता में समाहित है। इसी काशी के दक्षिणी छोर पर स्थित है भगवान जगन्नाथ का एक ऐसा मंदिर, जिसकी मान्यता और परंपराएं ओडिशा के पुरी स्थित विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर की भांति हैं। अस्सी घाट से मात्र 300 मीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर वाराणसी की संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है।

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पुरी जैसा ही विग्रह और दर्शन का फल
इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यहां भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र की प्रतिमाएं ठीक वैसी ही हैं जैसी पुरी मंदिर में स्थापित हैं। मान्यता है कि जो श्रद्धालु किसी कारणवश पुरी नहीं जा पाते, वे काशी में स्थित इस मंदिर में भगवान के दर्शन कर पुरी दर्शन के समान फल प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह मंदिर असंख्य श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है।

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मंदिर का ऐतिहासिक निर्माण
इस ऐतिहासिक मंदिर का निर्माण 1802 में भोंसले राज्य के दो नागरिक विश्वम्भर राम और बेनी राम द्वारा कराया गया था। इस मंदिर की स्थापत्य कला, मूर्तिकला और उसकी रचना पुरी के मूल मंदिर की प्रतिकृति प्रतीत होती है। हालांकि दिखने में यह मंदिर साधारण प्रतीत होता है, परन्तु इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता असाधारण है।

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स्थापना की पौराणिक कथा
मंदिर के प्रधान पुजारी राधेश्याम पांडे के अनुसार, इस मंदिर की स्थापना के पीछे एक अत्यंत रोचक कथा है। बताया जाता है कि पुरी मंदिर में पहले दो भाई पुजारी थे, जिनमें आपसी मतभेद हो गया। उनमें से एक भाई काशी आ गए और यहां भगवान जगन्नाथ की सेवा में लीन हो गए। वे केवल भगवान का प्रसाद ही ग्रहण करते थे, और पुरी से नियमित रूप से प्रसाद मंगाया जाता था। एक बार बाढ़ के कारण प्रसाद समय पर नहीं पहुंच पाया और वे कई दिनों तक भूखे रह गए। तब भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर निर्देश दिया कि वे काशी में ही उनकी प्रतिमा स्थापित करें। पुजारी ने पुरी से विग्रह मंगवाया और इस मंदिर की स्थापना की।

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मूर्ति निर्माण की परंपरा
मंदिर की परंपरा के अनुसार हर 12 साल में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की मूर्तियां बदली जाती हैं। नई मूर्तियां पुरी के कारीगरों द्वारा नीम की विशेष लकड़ी से बनाई जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस नीम के पेड़ में शंख, चक्र और अन्य दिव्य चिह्न दिखाई दें, उसी पेड़ की लकड़ी से विग्रह निर्मित होते हैं। पुरानी मूर्तियों को गंगा में विधिपूर्वक विसर्जित किया जाता है। यह कार्य शाहपुरी परिवार द्वारा किया जाता है।

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स्नान, बीमारी और फिर रथयात्रा
मंदिर में सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार हर वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ का स्नान कराया जाता है। इस दिन विशेष जलाभिषेक होता है, जिसके बाद भगवान 14 दिन तक बीमार हो जाते हैं। इसे 'अनवसर' या ‘अनासर’ कहा जाता है। इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक औषधियों से युक्त भोग लगाया जाता है और विशेष सेवा की जाती है। 14 दिन के बाद भगवान स्वस्थ होते हैं और रथ यात्रा की परंपरा का शुभारंभ होता है।

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भव्य डोली यात्रा
भगवान के स्वस्थ होने के उपरांत 25 जून को उन्हें परवल के जूस का भोग लगाया जाता है और यही प्रसाद भक्तों में वितरित किया जाता है। मान्यता है कि इस प्रसाद को ग्रहण करने से रोगों से मुक्ति मिलती है। इसके अगले दिन यानी 26 जून को भगवान की पालकी यात्रा निकाली जाती है। डोली यात्रा अस्सी स्थित मंदिर से प्रारंभ होकर खोजवा, नवाबगंज, संकुलधारा, कमच्छा होते हुए बेनीराम बागीचे तक पहुंचती है, जहां रात्रि विश्राम होता है। यात्रा के दौरान डमरू, ढोल-नगाड़े, बैंड-बाजे और शंखनाद से पूरे मार्ग का वातावरण भक्तिमय बना रहता है।

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रथ पर वर्षा का चमत्कार
अगले दिन प्रातः सूरज की पहली किरण के साथ भगवान की विशेष आरती की जाती है। फिर रथ यात्रा निकाली जाती है। प्रधान पुजारी के अनुसार, एक अद्भुत परंपरा यह भी है कि जब भगवान रथ पर सवार होते हैं तो इंद्रदेव प्रसन्न होकर केवल रथ मार्ग पर ही वर्षा करते हैं, जबकि आसपास के क्षेत्रों में बारिश नहीं होती। कई वर्षों तक यह चमत्कार देखा गया है, जो भक्तों की आस्था को और दृढ़ करता है।

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रथयात्रा में उमड़ती है काशीवासियों की भीड़
रथ यात्रा में लाखों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं। डोली को कंधे पर उठाने वाले कहारों और ढोल-नगाड़े बजाने वालों के लिए इस बार विशेष पोशाक तैयार की गई है। डोली यात्रा में भक्त पूरे मार्ग में पुष्पवर्षा करते हैं और "जय जगन्नाथ", "हर हर महादेव" और "जय श्री कृष्ण" के जयघोष से वातावरण गुंजायमान रहता है।

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ऐतिहासिक महत्व 
मंदिर के चारों कोनों में वैष्णव परंपरा से संबंधित चार दिव्य मूर्तियां भी स्थापित हैं। भगवान कृष्ण, राम पंचायतन, कालियामर्दन और लक्ष्मी-नारायण। यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है बल्कि स्थापत्य दृष्टिकोण से भी अनमोल धरोहर है। मंदिर दर्शन के लिए प्रतिदिन प्रातः 6:00 बजे से दोपहर 12:00 बजे तक और पुनः अपराह्न 3:00 बजे से रात्रि 9:00 बजे तक खुला रहता है। सुबह और शाम नियमित रूप से आरती होती है जिसमें स्थानीय भक्तों सहित देश-विदेश से आए श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं।

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लाखों लोगों का समर्पण और विश्वास
काशी में भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर की रथ यात्रा अब एक प्रमुख धार्मिक आयोजन बन चुकी है। इसे लक्खा मेला के रूप में भी देखा जाने लगा है। इस वर्ष इसकी भव्यता को और बढ़ाने के लिए सभा अध्यक्ष बृजेश सिंह स्वयं यात्रा में सम्मिलित होंगे। लगभग 3 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा में हजारों श्रद्धालु डोली के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं और यह यात्रा श्रद्धा, भक्ति और परंपरा का जीवंत उदाहरण बन जाती है।

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भगवान जगन्नाथ का यह मंदिर काशी के धार्मिक मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पुरी की परंपराओं और संस्कृति को काशी में जीवित रखते हुए यह मंदिर न केवल श्रद्धालुओं को पुरी जैसा आध्यात्मिक अनुभव कराता है, बल्कि बनारस की बहुरंगी धार्मिक विरासत को भी समृद्ध करता है। यह रथ यात्रा और डोली उत्सव, आस्था और भक्ति के पर्व हैं जो पीढ़ियों से काशीवासियों के हृदय में बसे हैं और हर वर्ष इसे और भव्यता से मनाया जाता है।
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