काशी-तमिल संगमम 4.0: नमो घाट पर कला-संस्कृति हुआ का संगम, लोकगीत, नृत्य और भक्ति रस की अनूठी छटा
वाराणसी। काशी तमिल संगमम 4.0 का तीसरा दिन गुरुवार को नमो घाट स्थित मुक्ताकाशी प्रांगण में भव्य सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ संपन्न हुआ। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज तथा दक्षिण क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, तंजावूर द्वारा संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से आयोजित इस आयोजन में काशी और तमिलनाडु की सांस्कृतिक परंपराओं का अनूठा संगम देखने को मिला। करीब तीन हजार दर्शक–पर्यटकों की उपस्थिति में यह तीसरा दिवस कला, संगीत और नृत्य की विविध धाराओं से सराबोर रहा।

कार्यक्रम की शुरुआत कजरी व्याख्यान केंद्र, संस्कृति मंत्रालय के छात्रों द्वारा भजन और कजरी लोकगायन से हुई। सबसे पहले देवी पचरा “मइया झूले की प्रस्तुति ने वातावरण में भक्ति का संचार किया। इसके बाद “झुनझुन खोल ना…”, “हरहर करनी” और अंत में “राम विवाह गीत बड़े ऊंचे…” ने दर्शकों को पारंपरिक लोकस्वर की मिठास से भर दिया। निर्देशन सुचरिता दास गुप्ता का था तथा तबला, हारमोनियम, बैंजो और नाल पर राकेश रौशन, पूनम शर्मा, संजय कुमार और अमित ने संगत की।

दूसरी प्रस्तुति वाराणसी की आंशिका सिंह एवं समूह की रही, जिन्होंने भजन गायन से आस्था का रंग और गाढ़ा कर दिया। शुरुआत “ऊं नमः शिवाय…” से हुई, इसके बाद “नमामि गंगे…” ने गंगा तट के वातावरण को और पावन बनाया। समापन “मेरे बाँके बिहारी…” से हुआ। उनके साथ कीबोर्ड पर सर्वेश प्रसाद, नाल पर रौशन और पैड पर बाबू कुमार ने तालमेल साधा।
इसके बाद मंच पर तमिलनाडु की भानुमति एवं दल ने कोयलियाट्टम, मयिलाट्टम और कालीयाट्टम जैसे पारंपरिक लोकनृत्यों की मनमोहक प्रस्तुति दी, जिसने दक्षिण भारतीय सांस्कृतिक विरासत की झलक दर्शकों के सामने जीवंत कर दी। चौथी प्रस्तुति काशी की सुश्री खिलेश्वरी पटेल एवं दल की थी, जिन्होंने भरतनाट्यम की शास्त्रीय गरिमा के साथ गणेश कौतुवम, अलरिपु और तिल्लाना की प्रस्तुति दी।
पांचवीं प्रस्तुति डॉ. जया रॉय एवं दल द्वारा हुई, जिन्होंने कजरी और अवधी गीतों “पिया मेहंदी लिया दा…”, “कैसे खेलन जयबु…”, “सईयां मिले लइकइया…”पर लोकनृत्य प्रस्तुत किया। अंतिम प्रस्तुति में पुनः भानुमति एवं दल ने डम्मी हॉर्स और माडू मायिलाट्टम जैसे तमिल लोकनृत्यों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम का कुशल संचालन अंजना झा ने किया। नमो घाट पर आज कला और संस्कृति का ऐसा संगम दिखा, जिसने काशी और तमिल परंपराओं को एक सूत्र में बांध दिया।

