वैश्विक बाजार में भारतीय कालीनों की धाक, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मिल रही नई मजबूती
- भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी और आगरा के कालीन की सबसे अधिक डिमांड
- अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा के साथ दुनिया के तमाम देशों में निर्यात
- हस्तनिर्मित कालीन घरेलू उपयोग संग कला व संस्कृति को भी कर रहे प्रदर्शित
- यूपी का भदोही और मिर्जापुर कालीन उत्पादन में एशिया का सबसे बड़ा हब
- कालीन बुनाई में माहिर हैं कारीगर, कई पीढ़ियों से कर रहे यही काम
- खूबसूरत कालीनों की कीमत छह हजार रुपये से लेकर लाखों तक
रिपोर्ट : ओमकार नाथ
वाराणसी। भारतीय कालीन उद्योग एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी विशिष्ट पहचान को और मजबूत करता नजर आ रहा है। हस्तनिर्मित भारतीय कालीनों की बढ़ती वैश्विक मांग ने न केवल देश के निर्यात को गति दी है, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी नई संजीवनी प्रदान की है। अमेरिका और यूरोप के बाजारों में भारतीय कालीनों की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है, जिसका सीधा लाभ उत्तर प्रदेश के भदोही–मिर्ज़ापुर, वाराणसी, आगरा, जयपुर, पानीपत और कश्मीर जैसे पारंपरिक कालीन उत्पादन क्षेत्रों को मिल रहा है।

अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में खासी डिमांड
भारत विश्व के अग्रणी कालीन उत्पादक और निर्यातक देशों में शामिल है। यहां बने कालीन अपनी उत्कृष्ट कारीगरी, पारंपरिक डिज़ाइन, आकर्षक रंग संयोजन और लंबे समय तक टिकाऊ गुणवत्ता के कारण अंतरराष्ट्रीय खरीदारों की पहली पसंद बने हुए हैं। विशेष रूप से अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भारतीय कालीनों की मजबूत मांग है। इन देशों में भारतीय हस्तनिर्मित कालीनों को न केवल उपयोगी घरेलू वस्तु, बल्कि कला और संस्कृति के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है।

भदोही और निर्जापुर कालीन उत्पादन का एशिया का सबसे बड़ा हब
उत्तर प्रदेश का भदोही–मिर्ज़ापुर क्षेत्र, जिसे एशिया का सबसे बड़ा कालीन उत्पादन केंद्र माना जाता है, इस उद्योग की रीढ़ है। यहां लाखों कारीगर पीढ़ियों से कालीन बुनाई के कार्य में लगे हुए हैं। गांव-गांव में करघों की खटखटाहट आज भी इस बात की गवाही देती है कि कालीन उद्योग केवल व्यवसाय नहीं, बल्कि यहां की जीवनशैली और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है। ऊन, रेशम और कॉटन से बने हस्तनिर्मित कालीनों की विविधता इस क्षेत्र की सबसे बड़ी ताकत है।

छह हजार से लेकर लाखों तक कीमत
कीमतों की बात करें तो भारतीय कालीन हर वर्ग के लिए उपलब्ध हैं। जहां मशीन से बने सामान्य कालीन कुछ हजार रुपये में मिल जाते हैं, वहीं हाथ से बुने ऊनी या रेशमी कालीनों की कीमत गुणवत्ता, डिज़ाइन और मेहनत के अनुसार हजारों से लेकर लाखों रुपये तक होती है। विदेशी बाजारों में इन कालीनों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है, जिससे निर्यातकों को अच्छा मुनाफा मिलता है और कारीगरों की आय में भी वृद्धि होती है।

सरकार की योजनाओं व नीतियों से लाभ
विशेषज्ञों का मानना है कि बीते कुछ वर्षों में सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं, निर्यात प्रोत्साहन नीतियों और हस्तशिल्प को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों से कालीन उद्योग को नई ऊर्जा मिली है। इसके परिणामस्वरूप न केवल निर्यात में वृद्धि हुई है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर भी पैदा हुए हैं। बड़ी संख्या में महिलाएं और युवा भी अब इस उद्योग से जुड़कर आत्मनिर्भर बन रहे हैं।

बेहद समृद्ध है भारतीय कालीन की विरासत
चांदपुर इंडस्ट्रियल स्टेट स्थित खुशी एंटरप्राइजेज के कार्पेट एक्सपीरियंस सेंटर के संस्थापक हुसैन जाफ़र हुसैनी का कहना है कि भारतीय कालीनों की विरासत बेहद समृद्ध है और आज भी दुनिया भर में इसे काफी सराहा जाता है। उन्होंने बताया कि भारत से सबसे अधिक कालीन निर्यात अमेरिका को होता है, जो भारतीय कालीन उद्योग के लिए सबसे बड़ा बाजार है। इसके अलावा यूरोपीय देशों और अन्य विकसित बाजारों में भी भारतीय कालीनों की अच्छी खपत है। हुसैनी के अनुसार भारत विश्व का सबसे बड़ा कालीन उत्पादक देश है और करीब 20 लाख से अधिक लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्योग से जुड़े हुए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पहले कालीनों को केवल लग्ज़री उत्पाद माना जाता था, लेकिन अब यह हर वर्ग के लिए सुलभ और उपयोगी हो गए हैं।

चुनौतियों से जूझ रहा कालीन उद्योग
इसके बावजूद कालीन उद्योग को आज भी अपेक्षित पहचान और संरक्षण का इंतजार है। काशी विश्वप्रसिद्ध कालीन उद्योग अपनी गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय मांग के बावजूद कई चुनौतियों से जूझ रहा है। स्थानीय कारीगरों और उद्योगपतियों का कहना है कि काशी के सांसद होने के साथ देश के प्रधानमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री से इस उद्योग को विशेष पहचान और ठोस प्रोत्साहन की उम्मीद थी, लेकिन जमीनी स्तर पर अभी तक अपेक्षित पहल दिखाई नहीं दे रही है।

कारीगर बोले, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो ब्रांडिंग
हजारों कारीगरों को रोजगार देने वाला यह उद्योग सरकारी संरक्षण, आधुनिक प्रशिक्षण, तकनीकी उन्नयन और सशक्त विपणन व्यवस्था के अभाव में संघर्ष कर रहा है। कारीगरों का मानना है कि यदि कालीन उद्योग को विशेष पैकेज, आधुनिक डिज़ाइन प्रशिक्षण, आसान ऋण सुविधा और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी ब्रांडिंग मिले, तो यह क्षेत्र देश की आर्थिक समृद्धि का एक बड़ा केंद्र बन सकता है।

प्राचीन और गौरवशाली है कालीन का इतिहास
कालीन का इतिहास भी उतना ही प्राचीन और गौरवशाली है जितना इसका वर्तमान। कालीन निर्माण की परंपरा मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से जुड़ी हुई है। जब मनुष्य ने ठंड, धूल और नमी से बचाव के लिए पशुओं की खाल और ऊन का उपयोग करना शुरू किया, तभी कालीन की अवधारणा ने जन्म लिया। विश्व का सबसे प्राचीन ज्ञात कालीन ‘पाज़िरिक कालीन’ माना जाता है, जो लगभग 500 ईसा पूर्व का है। यह साइबेरिया के अल्ताई क्षेत्र में एक बर्फीली कब्र से प्राप्त हुआ था और इसमें उस समय की उन्नत बुनाई कला के प्रमाण मिलते हैं।

फारस से हुआ बुनाई कला का विकास
कालीन बुनाई की कला का सबसे अधिक विकास फारस (ईरान) में हुआ, जहां इसे एक उच्च कोटि की कला का दर्जा मिला। फारसी कालीन अपनी जटिल डिज़ाइन, बेहतरीन रंग संयोजन और टिकाऊपन के लिए आज भी विश्वविख्यात हैं। इसके साथ ही तुर्की, मध्य एशिया, चीन और अफगानिस्तान में भी कालीन निर्माण की समृद्ध परंपरा रही है।

मुगलकाल से मानी जाती है शुरुआत
भारत में कालीन निर्माण की शुरुआत मुगल काल में मानी जाती है। सम्राट अकबर के समय फारस से कुशल कारीगरों को भारत बुलाया गया, जिन्होंने भारतीय शिल्पकारों को इस कला की बारीकियां सिखाईं। धीरे-धीरे काशी (भदोही–मिर्ज़ापुर), आगरा, जयपुर और कश्मीर कालीन उद्योग के प्रमुख केंद्र बन गए। समय के साथ भारतीय कालीनों ने अपनी अलग पहचान बनाई और विश्व बाजार में प्रतिष्ठा हासिल की।

मेहनत भरी है कालीन निर्माण की प्रक्रिया
कालीन निर्माण की प्रक्रिया भी बेहद रोचक और मेहनत से भरी होती है। कालीन के ऊपरी हिस्से में ऊन या रेशम के छोटे-छोटे लेकिन घने तंतु खड़े रहते हैं। इन्हें लगाने के लिए विभिन्न प्रकार की बुनाई तकनीकों का उपयोग किया जाता है। कहीं ऊनी सूत के फंदे बाने में डाले जाते हैं, तो कहीं आधार कपड़े पर सूत की सिलाई की जाती है। कुछ आधुनिक कालीनों में रासायनिक लेप द्वारा तंतु चिपकाए जाते हैं। ऊन के स्थान पर रेशम का प्रयोग होने पर कालीन बेहद आकर्षक तो बनते हैं, लेकिन उनकी कीमत काफी अधिक होती है और टिकाऊपन अपेक्षाकृत कम रहता है। कपास के सूत से बने कालीन भी उपलब्ध हैं, हालांकि उन्हें ऊनी कालीनों जितना महत्व नहीं मिलता।

मशीन से बने कालीन की कई किस्में
मशीन से बने कालीनों की भी कई किस्में हैं। इनमें ब्रुसेल्स कालीन सबसे प्राचीन माने जाते हैं, जिनमें ऊनी धागों के सिरे कटे हुए नहीं होते। हालांकि आजकल ऐसे कालीनों का प्रचलन कम हो गया है, क्योंकि उपभोक्ता अधिक आकर्षक और टिकाऊ हस्तनिर्मित कालीनों को प्राथमिकता दे रहे हैं।



