काशी में अगस्त्य ऋषि ने स्थापित किया था अगस्त्येश्वर महादेव, इकलौता शिवालय जहां समुद्र देव की भी होती है पूजा, जानिए क्या है मान्यता
वाराणसी में पांच सौ से अधिक शिवालयों का उल्लेख मिलता है। इनमें 48 शिवालयों को ऋषि-मुनियों ने स्थापित किया था। ऐसा उल्लेख काशी खंड में वर्णित है। ऋषि मुनियों ने बाबा के अनेक रुपों को यत्र तत्र स्थापना कर तत्तक्षेत्र का उन्हें क्षेत्राधिपति-क्षेत्रपालक, क्षेत्र देवता की संज्ञा दी।
भगवान शंकर के सानिध्य में अगस्त्य ऋषि ने शहर के प्रमुख राजमार्ग गोदौलिया के समीप दशाश्वमेध क्षेत्र के अगत्स्यकुंड में विराजमान है। इस शिवलिंग की स्थापना अगस्त्य ऋषि ने की थी। अगस्त्य ऋषि के स्थापना के कारण इस शिवलिंग को लोग अगत्स्येश्वर महादेव के नाम से जानते हैं। इसी शिवलिंग के चलते इस मुहल्ले का नाम अगत्स्यकुंड पड़ा। यहां पर पुराकाल में अगत्स्यकुंड नामक कुंड हुआ करता था। जहां पर भगवान ऊपर की ओर विराजमान है और नीचे कुंड था। यह काशी खंड में उल्लेखित है।
इस कुंड का काफी महत्व था। जो कोई भी इस कुंड में स्नान करता था वह व्यक्ति प्रत्यक्ष मोक्षगामी होकर काशीवास का पूर्ण फल प्राप्त करता था। मैत्रावरुण नामक ऋषि से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति की कथा मिलती है। अगस्त्येश्वर महादेव मंदिर में समुद्रेश्वर भी विराजमान हैं। किसी भी शिवालय में शिव के वाहन के रुप में उनके गर्भगृह के द्वार पर नंदी प्रत्यक्ष रुप में रहते हैं लेकिन यही एक ऐसा देवालय है जहां पर नंदी का स्थान पर समुद्र देवता ने लिया है।
समुद्रेश सहज ही अगस्त्य ऋषि के आगे नतमस्तक नहीं हुए, अपितु अगस्त्य ने अपने अद्भुत तेज के प्रभाव से समुद्र को पीना प्रारंभ कर दिया। तब समुद्रेश ने प्रार्थना किया कि हे भगवन मेरा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। कृपया ऐसा न करें, मैं आपका शरणागत हूं। इस पर अगस्त्येश्वर महादेव के द्वार पर समुद्र देवता प्रतिष्ठित हुए। इसी परिसर में अगस्त्य ऋषि की धर्मपत्नी लोपामुद्रा दक्षिण दिशा में उत्तर की ओर मुंह करके विराजमान हैं। लोपामुद्रा अपने पति व्रत संयम, त्याग-तपस्या के कारण विख्यात हैं। देवालय के अंत परिसर में ही अगस्त्य ऋषि की आकर्षक मूर्ति भी विराजमान हैं। सम्पूर्ण उत्तर भारत में ऐसा अद्भुत देव विग्रह सिर्फ काशी के अगस्त्यकुंड में विराजमान है।
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