Dev Deepawali: दान के 1 लीटर तेल से काशी में शुरू हुई थी देव दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा घाट पर उतरता है देवलोक, जानिए क्या है इतिहास

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वाराणसी। काशी की देव दीपावली का इतिहास बहुत पुराना और समृद्ध है। यह पर्व, जिसे देवताओं की दीपावली कहा जाता है, उत्तर भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक पहलुओं से गहरा संबंध रखता है। हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले इस त्योहार को देवताओं का स्वागत करने, उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने और पवित्र गंगा के तटों पर दीपों के माध्यम से अंधकार का नाश करने के रूप में देखा जाता है।

देव दीपावली का धार्मिक महत्त्व और इतिहास

देव दीपावली का सबसे पहला उल्लेख प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। माना जाता है कि यह पर्व त्रिपुरासुर नामक एक अत्याचारी राक्षस के वध की याद में मनाया जाता है, जिसे भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष्य में सभी देवताओं ने खुशी व्यक्त की और दीप जलाकर इस दिन को मनाया। उसी समय से काशी में देव दीपावली का प्रचलन हुआ और इसे देवताओं की दीपावली कहा जाने लगा।

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गंगा तट पर दीप जलाने की परंपरा

काशी में गंगा नदी का विशेष धार्मिक महत्त्व है। यहाँ पर स्थित अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट जैसे अनेक घाट इस पर्व के मुख्य आकर्षण होते हैं। इस बार इस कड़ी में नमो घाट भी जुड़ने जा रहा है, जिसका उद्घाटन उपराष्ट्रपति करने वाले हैं। कार्तिक पूर्णिमा की शाम लाखों दीपक से गंगा घाट जगमग होंगे।  मान्यता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है और मनुष्य का पुनर्जन्म से मुक्त होने का मार्ग खुलता है।

DEV DIPAWAI 2021

1985 में शुरू हुई थी परम्परा

बनारस की देव दीपावली एक ऐसा पर्व है, जो हर साल गंगा के घाटों पर देवलोक का दृश्य प्रस्तुत करता है। विश्वभर में प्रसिद्ध इस दीपोत्सव में विभिन्न देशों से पर्यटक आते हैं, जो घाटों पर दीपों की मनमोहक सजावट का आनंद लेते हैं। देव दीपावली पर दीप जलाने की यह परंपरा 1985 में शुरू हुई थी, जब पहली बार कार्तिक पूर्णिमा पर पंचगंगा घाट और उसके आस-पास के पांच घाटों को दीपों से सजाया गया। मंगलागौरी मंदिर के महंत नारायण गुरु और कुछ अन्य लोगों ने इस दीपोत्सव की शुरुआत की थी। 

DEV DIPAWALI

1985 में पहली बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन काशी के घाटों पर दीपोत्सव मनाया गया था। मंगलागौरी मंदिर के महंत नारायण गुरु के साथ अन्य लोगों ने इसका बीड़ा उठाया था। उस समय पंचगंगा घाट के साथ आस-पास के पांच घाटों पर पहली बार हजारों दीप जले थे। जिसे देखने के लिए हजारों लोग वहां पहुंच गए थे। पांच घाटों से शुरू हुई थी परम्परा नारायण गुरु ने बताया कि उस समय मुहल्ले के चाय, पान की दुकान पर इसके लिए टीन रखवाए गए थे। इसमें किसी ने 1 लीटर तो किसी ने आधा लीटर तेल दान में दिया था। दान के इसी तेल से पांच घाटों पर दीप जले थे। इसके बाद इस परम्परा की शुरुआत हुई और आज पांच घाटों से शुरू हुआ ये सफर महज कुछ सालों में प्रांतीय मेले तक पहुंच गया। अब इस आयोजन में यूपी की योगी सरकार खुद लाखों दीये जलवा रही है।

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पांच घाटों से लाखों दीपों तक का सफर

इस आयोजन के शुरुआती दिनों में मुहल्ले के लोग मिलकर चाय और पान की दुकानों पर टिन रखवाते थे, जिसमें श्रद्धालु दीप जलाने के लिए तेल का दान करते थे। दान किए गए तेल से पंचगंगा घाट समेत पांच घाटों पर दीप जलाए गए थे, जिससे यह परंपरा धीरे-धीरे लोकप्रिय होती गई। आज, यह आयोजन उत्तर प्रदेश का प्रमुख आकर्षण बन गया है, जिसमें राज्य सरकार की देखरेख में लाखों दीप जलाए जाते हैं।

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प्रधानमंत्री मोदी भी कर चुके हैं देव दीपावली का दर्शन

इस उत्सव की भव्यता इतनी बढ़ गई है कि इसे देखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी स्वयं यहां आ चुके हैं। इस बार, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपराष्ट्रपति सहित कई विशेष अतिथि और बॉलीवुड सेलेब्रिटी भी इस आयोजन का हिस्सा बनने आ रहे हैं।

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देव दीपावली की पौराणिक मान्यता

देव दीपावली से जुड़ी धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुर नामक असुर का वध किया था। इस उपलक्ष्य में, सभी देवता धरती पर आकर गंगा किनारे दीप प्रज्ज्वलित करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा की इस रात देवता स्वर्ग से अदृश्य रूप में आकर बनारस के घाटों पर इस दीपोत्सव का साक्षी बनते हैं।

देव दीपावली का यह पर्व न केवल बनारस की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है, बल्कि देश-विदेश के सैलानियों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है।
 

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