पुण्यतिथि विशेष : संस्कार, विद्या और करुणा का संगम थे काशी नरेश डॉ विभूति नारायण सिंह, हर-हर महादेव के जयघोष में बसता था उनका व्यक्तित्व

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वाराणसी। 25 दिसंबर 2000 की वह ठिठुरती शाम आज भी काशी की स्मृतियों में सिहरन बनकर दर्ज है। दिन ढलने से पहले ही शहर के किसी कोने से निकली वह करुण पुकार- “काशी अनाथ भयल रजऊ, राजा साहेब शिवलोक सिधार गइलन…”- देखते ही देखते पूरे नगर में फैल गई। मानो बेतार के तार से शोक का संदेश हर टोले, हर गली, हर चौक तक पहुंच गया हो। बाजार ठहर गए, रास्ते सुन्न हो गए और काशी की आत्मा जैसे एक क्षण के लिए थम गई।

जब पूरा शहर रो पड़ा
कुछ ही देर में समाचार पुष्ट हो गया- काशीवासियों के संरक्षक, उनकी आन-बान-शान के प्रतीक डॉ. विभूति नारायण सिंह अब इस संसार में नहीं रहे। रामनगर दुर्ग से लेकर नदेसरी कोठी तक, गंगापार से शहर के हृदय तक, हर सड़क और हर गली शोकाकुल जनसमूह से भर गई। लोग जहां थे, वहीं ठिठक गए। आंखों में नमी और मन में अपूरणीय बिछोह की पीड़ा थी।

अंतिम विदाई, जिसमें उमड़ आया पूरा बनारस
कहते हैं किसी व्यक्ति की लोकप्रियता का वास्तविक पैमाना उसकी अंतिम यात्रा होती है। काशी नरेश की अंतिम यात्रा उस कथन को जीवंत प्रमाण में बदल गई। महाश्मशान मणिकर्णिका घाट की चरण पादुका पर हुए अंतिम संस्कार में ऐसा लगा मानो पूरा बनारस ही उन्हें अंतिम प्रणाम करने चला आया हो। सोनारपुरा से मैदागिन और कबीरचौरा तक मानवीय सैलाब उमड़ा था। बुजुर्गों के अनुसार, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की अंतिम यात्रा के बाद यह दूसरा अवसर था जब लाखों लोगों ने तन-मन से किसी काशिकेय के महाप्रयाण को साक्षात देखा।

यशस्वी कृतित्व से गढ़ा गया व्यक्तित्व
डॉ. विभूति नारायण सिंह केवल राजगद्दी के उत्तराधिकारी नहीं थे, वे काशी की चेतना का जीवंत स्वरूप थे। राज-पाट रहा या न रहा, काशी के लिए वे सदैव सचल विश्वनाथ की तरह पूज्य रहे। उनका सहज, सरल और विनयशील व्यक्तित्व उनके कर्मों से गढ़ा गया था। जिस मार्ग से वे गुजरते, वहां हर-हर महादेव का उद्घोष स्वयं उठ पड़ता। काशीवासी उनमें साक्षात बाबा विश्वनाथ की झलक देखते थे।

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वेदों के विद्वान, आधुनिक ज्ञान के साधक
वेदों के महापंडित स्व. राजराजेश्वर शास्त्री द्रविड़ के शिष्य रहे डॉ. विभूति नारायण सिंह वेद, पुराण और सनातन दर्शन के मर्मज्ञ थे। साथ ही वे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के भी अध्येता थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में उनकी विद्वता और गरिमा ने उन्हें विशिष्ट आभामंडल प्रदान किया। जनता के बीच उनका करबद्ध प्रणाम केवल अभिवादन नहीं, बल्कि आत्मीय समर्पण का प्रतीक होता था।

काशी की परंपराओं के सजग प्रहरी
काशी के पारंपरिक पर्व और उत्सव उनकी उपस्थिति के बिना अधूरे माने जाते थे। रामनगर की विश्वप्रसिद्ध रामलीला, नाटी इमली का भरत मिलाप, तुलसी घाट की नाग नथैया, ध्रुपद मेला, पंचगंगा की देवदीपावली, गौतमेश्वर पूजन और पंचकोसी यात्रा- ऐसे असंख्य अवसर थे जब काशीवासी पलक-पांवड़े बिछाकर उनकी प्रतीक्षा करते थे। बिना शब्दों के भी लोगों से उनका गहरा आत्मिक संवाद स्थापित हो जाता था।सस

स्मृतियों में आज भी जीवित
बीएचयू के प्राच्य विद्या अध्येता प्रो. माधव जनार्दन रटाटे स्मरण करते हैं कि वेदज्ञों और विप्रों के प्रति उनकी श्रद्धा अपार थी। गोल्फ खेलने के बाद गोधूलि बेला में उनका नित्य संध्या-वंदन में लीन होना आज भी याद आने पर मन को व्याकुल कर देता है। यह केवल एक राजा नहीं, बल्कि एक साधक का जीवन था।

सम्मान जो अंतिम सांस तक साथ रहा
प्रिवी पर्स की समाप्ति के बाद भी उन्हें सशस्त्र बल पीएसी की गारद की नित्य सलामी मिलती रही। काशी नरेश की उपाधि उनकी पगड़ी को अंतिम समय तक सुशोभित करती रही। यह सम्मान किसी शासनादेश से नहीं, बल्कि जनता के हृदय से उपजा था।

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जीवनवृत्त एक दृष्टि में
डॉ. विभूति नारायण सिंह का जन्म 5 नवंबर 1927 को आजमगढ़ के सूरजपुर में हुआ। 1939 में वे काशी राज्य के उत्तराधिकारी बने। 15 अक्टूबर 1948 को काशी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ और उन्होंने स्वयं रामनगर दुर्ग पर तिरंगा फहराया। 25 दिसंबर 2000 को उन्होंने शिव सायुज्य प्राप्त किया और राजकीय सम्मान के साथ मणिकर्णिका घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ।

काशी का संरक्षक, स्मृतियों में अमर
आज उनकी पुण्यतिथि पर काशी उन्हें केवल एक पूर्व राजा के रूप में नहीं, बल्कि अपने संरक्षक, मार्गदर्शक और सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक के रूप में स्मरण करती है। समय बदल गया, व्यवस्थाएं बदलीं, लेकिन काशी के मन में डॉ. विभूति नारायण सिंह आज भी उतने ही जीवंत हैं— जैसे बाबा विश्वनाथ की छाया में खड़ा एक शांत, करुण और लोककल्याणकारी प्रहरी।

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