जयंती विशेष: जब एक तीर से औरंगज़ेब के सेनापति का सिर धड़ से कर दिया था अलग, पढ़िए सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह के जीवन की अनोखियो गाथा
गुरु गोविंद सिंह का बाल्यकाल अत्यंत प्रेरणादायक था। उन्हें सभी लोग स्नेहपूर्वक "बाल प्रीतम" कहकर बुलाते थे। उनके मामा ने यह मानकर कि वे ईश्वर की विशेष कृपा से प्राप्त हुए हैं, उनका नाम "गोविंद" रखा। यही नाम आगे चलकर उनके जीवन का पर्याय बन गया। गुरु के पद की गरिमा बनाए रखने के लिए उन्होंने युद्ध कौशल में निपुणता प्राप्त की और विभिन्न भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया।
विद्या और युद्ध कला में थे कुशल
गुरु गोविंद सिंह जी की शिक्षा-दीक्षा बहुआयामी थी। उन्होंने संस्कृत, फारसी, अरबी और अपनी मातृभाषा पंजाबी में महारथ हासिल की। इसके साथ ही उन्होंने वेद, पुराण, उपनिषद और कुरान का भी गहन अध्ययन किया। उनके कुशाग्र मस्तिष्क और अपार परिश्रम ने उन्हें न केवल एक उत्कृष्ट योद्धा बल्कि एक उच्च कोटि का विद्वान भी बना दिया।
अपने जीवनकाल में गुरु गोविंद सिंह ने सिख समाज को संगठित करने और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रयास किए। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की और सिखों को एकजुट होकर अन्याय और अत्याचार का मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया। उनकी काव्य रचनाएं, जो दसम ग्रंथ में संकलित हैं, सिख समुदाय के लिए पवित्र ग्रंथ का स्थान रखती हैं।
खालसा की स्थापना
सन 1699 में बैसाखी के दिन गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने पांच स्वयंसेवकों, जिन्हें "पंज प्यारे" कहा गया, को जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने वाले खालसा पंथ में दीक्षित किया। उन्होंने कड़ा, कृपाण, कच्छा, केश, और कंघा—इन पांच चिह्नों को खालसा के प्रतीक के रूप में निर्धारित किया।
एक तीर ने कर दिया जीत और हार का फैसला
गुरु गोविंद सिंह की खालसा पंथ की स्थापना ने औरंगजेब को क्रोधित कर दिया। मुगल बादशाह ने पंजाब के सूबेदार वजीर खां को आदेश दिया कि सिखों को हराकर गुरु गोविंद सिंह को बंदी बना लिया जाए। हालांकि, गुरु गोविंद सिंह ने अपने थोड़े से सिख साथियों के साथ मुगल सेना का डटकर सामना किया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
इस संघर्ष के दौरान गुरु गोविंद सिंह ने कहा था, "चिड़िया संग बाज लड़ाऊं, तहां गोविंद सिंह नाम कहाऊं।" यह वाक्य उनकी अटूट साहस और आत्मविश्वास का परिचायक है। उन्होंने मुगलों की सेना को चिड़िया और सिखों को बाज के रूप में संबोधित किया।
पाइंदा खां से मुठभेड़
औरंगजेब की सेना का नेतृत्व कर रहे सेनापति पाइंदा खां ने गुरु गोविंद सिंह को चुनौती दी कि युद्ध का फैसला दोनों के बीच की लड़ाई से होगा। पाइंदा खां को अपने धनुष और बाण की अचूकता पर अत्यधिक गर्व था।
गुरु गोविंद सिंह ने उसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा, "पहला वार तुम्हारा होगा, क्योंकि चुनौती तुम्हारी ओर से आई है।" पाइंदा खां ने आत्मविश्वास से भरे शब्दों में कहा, "मेरा पहला वार ही तुम्हारे जीवन का अंत कर देगा।" उसने अपना बाण धनुष पर चढ़ाकर छोड़ा, लेकिन गुरु गोविंद सिंह ने अपने तीर से उसे बीच में ही काट दिया।
अब बारी गुरु गोविंद सिंह की थी। उन्होंने केवल एक तीर से पाइंदा खां का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस एक वार ने सिखों की विजय सुनिश्चित कर दी। मुगल सेना को हार स्वीकार करनी पड़ी, और गुरु गोविंद सिंह की वीरता का एक और अध्याय इतिहास में दर्ज हो गया।
धर्म और साहस का संगम
गुरु गोविंद सिंह जी केवल एक महान योद्धा ही नहीं, बल्कि एक प्रेरणादायक नेता और कवि भी थे। उनकी रचनाएं सिख धर्म के मूल्यों को दर्शाती हैं और आज भी उनके अनुयायियों को मार्गदर्शन देती हैं।