BHU की शोध छात्रा ने गोदना पर किया रिसर्च, दो हजार साल पुरानी है परंपरा, मातृत्व शक्ति का भी है प्रतीक

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वाराणसी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के पुरातात्विक विभाग की छात्रा ने गोदना पर रिसर्च किया है। उन्होंने अपने रिसर्च में यह बताने का प्रयास किया है कि पहले के जमाने में महिलाएं क्यों गोदना बनवाती थी और इसका क्या महत्व होता है। 

काशी हिंदू विश्वविद्यालय पुरातात्विक विभाग की छात्रा प्रीति रावत गोदना पर शोध कर रही हैं। बातचीत के दौरान प्रीति रावत ने बताया कि गोदना हजारों साल पुरानी परंपरा है। पुराने जमाने में गोदना महिला और पुरुष के शरीर पर बनाया जाता था। यह नुकीली सुई के जरिए स्याही से शरीर के अलग-अलग अंगों पर अलग-अलग आकृति बनाई जाती थी। यह सबसे ज्यादा आदिवासियों में प्रचलित था। 

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उन्होंने बताया कि इस समय यह लगभग विलुप्त होने के कगार पर है। प्रीति ने बताया कि आधुनिक युग में लोग गोदना की परंपरा को भूल से गए हैं। यह सबसे ज्यादा आदिवासी समूह में प्रचलित था और इससे आदिवासी जनजाति इसे एक विरासत के रूप में सहेजे हुए थे। प्रीति बताती है कि हमने इस गोदना पर शोध किया कि आखिर गोदना बनाने की क्या परंपरा है। यह लगभग 2000 साल पुरानी परंपरा है जो आदिवासियों में प्रचलित है। इस परंपरा को सैल चित्रकला के समय का माना जाता है। 

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आदिवासी समाज के लोग गोदना को अपने जनजाति के चिन्ह के लिए या फिर उनके संस्कृति के लिए बनवाते थे। उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज के लोग अपने शरीर पर जानवरों के चिन्ह जैसे बिच्छू, जालीदार पान के पत्ते, मोर इत्यादि के चित्र बनवाते थे। उन्होंने शोध के दौरान पाया कि महिलाएं इसे अपने जीवन काल के दौरान अलग-अलग समय बनवाती थी। जैसे यदि उन्हें संतान उत्पत्ति होती थी तो उसके लिए अलग गोदना, शादी के दौरान अलग गोदना, तीज त्योहार पड़ने पर अलग गोदना बनवाती थी। किस तरीके से शरीर के अलग-अलग अंगों पर अलग-अलग समय बनवाती थी। 

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उन्होंने बताया कि आज की महिलाएं बस इस परंपरा का निर्वहन करने के लिए महज एक बिंदु बनवाकर रहने लगी हैं। इसके पीछे बहुत सी पुरानी मान्यताएं व कहानी उन लोगों द्वारा बताई जाती है। जनजातियों में इसे मात्रृ शक्ति से जोड़कर देखा जाता है। कहते हैं शादी के पहले महिलाओं के हाथ पर गोदना बनाकर यह देखा जाता है कि महिला मातृत्व के दर्द को सहन कर सकती है या नहीं। 

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इसके साथ ही उन लोगों में दूसरी मान्यता यह भी है की मृत्यु के समय शरीर पर कोई भी वस्त्र या आभूषण साथ में नहीं जाता बल्कि यह एक ऐसा मात्रा जेवर है जो मृत्यु के समय भी साथ रहता है। इसलिए उन लोगों में इसे बनवाने की परंपरा है। बातचीत के दौरान प्रीति रावत ने बताया कि गोदना पर मेरा रिसर्च लगभग 2 सालों से चल रहा है। इस दौरान हमने ताराचंडी (सासाराम) पंचमुखी (सोनभद्र) में रहने वाले आदिवासी जनजाति पर रिसर्च किया है। जिसमें गोड, खरवार बैगा घासी जनजाति शामिल है। उन्होंने बताया कि गोदना और टैटू दोनों अलग चीजे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि हम अपने रिसर्च में इसका दायरा और भी बढ़ाएंगे और गोदना को लेकर अलग-अलग जनजातियों के बीच जाकर और पुरानी परंपरा के बारे में शोध किया जायेगा।
 

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