बीएचयू में सजा ‘आदि बाज़ार’, जनजातीय कला, संस्कृति और आत्मनिर्भरता की झलक

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- ट्राइब्स इंडिया की पहल, तरह-तरह के जनजातीय उत्पाद कर रहे आकर्षित
 

- जनजातीय कला, मौलिकता, प्रकृति से जुड़ाव का प्रमाण है जनजातीय बाजार
 

- जनजातीय उत्पादों की ब्रांडिंग व बाजार से सीधे जोड़ने की हो रही पहल 
 

- बांस-लकड़ी और प्राकृतिक तरीके से तैयार उत्पाद बने आकर्षण का केंद्र
 

- लघु उद्योग में महिलाओं की भूमिका अहम, एक महिला ने 300 को बनाया आत्मनिर्भर
 

- 10,000 से 15,000 रुपये हर माह कर रही है आमदनी
 

- कारीगरों में विदेश तक अपना प्रोडक्ट पहुंचाने की तमन्ना

रिपोर्ट - ओमकारनाथ

वाराणसी। बीएचयू परिसर स्थित मधुबन पार्क (मधुवन लॉन) इन दिनों जनजातीय संस्कृति, कला और परंपरा के रंगों से सराबोर है। ट्राइब्स इंडिया (TRIFED) के तत्वावधान में आयोजित “आदि बाज़ार” जनजातीय उत्पादों की प्रदर्शनी एवं बिक्री के माध्यम से लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। यह आयोजन केवल खरीदारी का मंच नहीं, बल्कि जनजातीय समाज की जीवनशैली, परंपरागत ज्ञान और आत्मनिर्भरता की प्रेरक कहानी भी प्रस्तुत कर रहा है।

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आदि बाज़ार में देश के विभिन्न राज्यों से आए जनजातीय कारीगरों और शिल्पकारों ने अपने पारंपरिक हुनर का प्रदर्शन किया है। यहां हस्तशिल्प, हथकरघा वस्त्र, पारंपरिक आभूषण, बांस व लकड़ी से बने उत्पाद, मिट्टी के बर्तन, धातु शिल्प, प्राकृतिक खाद्य सामग्री, हर्बल उत्पाद, शुद्ध शहद, मसाले और जैविक उत्पाद प्रदर्शित एवं विक्रय किए जा रहे हैं। इन उत्पादों में जनजातीय कला की मौलिकता, प्रकृति से गहरा जुड़ाव और पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा साफ दिखाई देती है।

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इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य जनजातीय समुदायों को सीधे बाजार से जोड़ना, उन्हें उनके उत्पादों का उचित मूल्य दिलाना और शहरी उपभोक्ताओं को स्वदेशी एवं प्राकृतिक उत्पादों के प्रति जागरूक करना है। बिना किसी बिचौलिये के सीधे ग्राहकों से संपर्क होने के कारण कारीगरों की आय में वृद्धि हो रही है और उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने का अवसर मिल रहा है।

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प्रदर्शनी में जनजातीय संस्कृति की झलक भी देखने को मिल रही है। पारंपरिक वेशभूषा में सजे कारीगर अपने उत्पादों के साथ-साथ उनकी निर्माण प्रक्रिया और सांस्कृतिक महत्व के बारे में भी जानकारी दे रहे हैं। इससे खासकर युवाओं और छात्रों में जनजातीय जीवनशैली, कला और परंपराओं के प्रति रुचि और समझ बढ़ रही है।

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उत्तराखंड की रहने वाली रीता देवी ने Live VNS News के रिपोर्टर ओमकार नाथ से बातचीत में बताया कि यह कला उनकी पुश्तैनी विरासत है, जिसे उनकी नानी, दादी और मां किया करती थीं। समय के साथ यह कला लगभग विलुप्त हो गई थी, लेकिन निरंतर प्रयासों से अब इसे दोबारा जीवित किया गया है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में लगभग 300 महिलाएं इस कार्य से जुड़ी हैं और प्रत्येक महिला 10 से 12 हजार रुपये प्रतिमाह तक की आय अर्जित कर रही है। इससे महिलाएं न केवल अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रही हैं, बल्कि अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में शिक्षा भी दिला रही हैं।

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रीता देवी ने बताया कि वे मूजग्रास (कुश घास) से पूजा डलिया, पूजा थाल, पेन होल्डर, पेपर वेट, सजावटी सामान, गणेश जी के तोरण, चाबी रिंग सहित 25 से 30 प्रकार के उत्पाद बनाती हैं। इन उत्पादों की कीमत 100 रुपये से 1500 रुपये तक है और अब इनकी मांग देश के साथ-साथ विदेशों में भी बढ़ रही है। उत्तराखंड की ही अनीता देवी ने बताया कि मूजग्रास से बने हस्तशिल्प उत्पादों से उन्हें 10 से 15 हजार रुपये प्रतिमाह की आय हो रही है। उन्होंने कहा कि यह कला उनके पूर्वजों की देन है, जिसे महिलाओं ने मिलकर फिर से जीवित किया है।

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बीएचयू परिसर में आयोजित इस आदि बाज़ार को छात्रों, शिक्षकों, स्थानीय नागरिकों और पर्यटकों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। लोग न केवल खरीदारी कर रहे हैं, बल्कि ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ की भावना को भी मजबूती दे रहे हैं। आयोजकों के अनुसार, ऐसे आयोजन जनजातीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने और उनकी सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। यह आदि बाज़ार 23 दिसंबर तक चलेगा।

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