वाराणसी : बिना पांव धोए केवट ने किया प्रभु श्रीराम को नाव पर बैठाने से इनकार, बाल्मिकी आश्रम पहुंचे भगवान

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वाराणसी। विश्व प्रसिद्ध रामनगर रामलीला में रविवार को केवटराज से संवाद के भावुक पलों का मंचन हुआ। केवट तो साधारण सा नाविक ही था। उसने सुन रखा था कि प्रभु के पैर पड़ते ही अहिल्या का उद्धार हो गया था। उसे भी डर था कि कहीं प्रभु के पैर पड़ते ही उसकी नाव भी स्त्री न बन जाये। सो इन्कार कर दिया प्रभु को कि बिना पैर धोये नाव में नही बिठायेगा। प्रभु वन की राह में आगे बढ़ते गए तो उनकी सहायता के लिए ऋषि मुनियों का मिलन होता रहा। आखिर उनका वन आगमन तो इन्हीं के कल्याण के लिए हुआ था।

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रामलीला के दसवें दिन श्रीराम के गंगा और यमुना नदी पार कर चित्रकूट पहुंचने के प्रसंग मंचित किये गए। वन में जाने के लिए जब राम गंगा तट पर पहुंचे और केवट को नाव लाकर पार उतारने को कहा तो उसने साफ इंकार कर दिया। वह उनके चरण कमल की महिमा कहते हुए बिना पांव धोए पार न उतारने की हठ करने लगा। उसकी बात सुनकर राम सीता की ओर देखकर मुस्कुराए।

उन्होंने उसे पांव धोने की आज्ञा दे दी। केवट कठौते में गंगाजल भरकर लाया और पांव पखारकर चरणामृत लेने के बाद उन्हें नाव में बैठाकर पार उतारा। यह देखकर देवता जय जयकार करते हैं। पार उतार कर जब राम उसे मुंदरी देकर उतराई देते हैं तो वह नहीं लेता। वह कहता है कि लौटते समय आप जो देंगे वह मैं प्रसाद समझकर रख लूंगा। गंगा पार उतर कर राम निषाद राज से घर वापस जाने को कहते हैं। निषादराज चार दिन और सेवा का अवसर मांगते हैं। सभी को साथ लेकर श्रीराम प्रयाग पहुंचे। वहां त्रिवेणी में स्नान करने के बाद वह भारद्वाज मुनि के पास पहुंचे। वहां रात्रि विश्राम करने के बाद प्रातः उठकर वन में आगे जाने का मार्ग पूछते हैं।

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मुनि के शिष्य उन्हें यमुना के पास पहुंचाते हैं। यमुना पार करके वे ग्राम वासियों से मिलते हैं। लक्ष्मण उनसे बाल्मीकि के आश्रम का पता पूछते हैं। वहां पहुंचने पर राम का दर्शन पाकर बाल्मीकि अपने को धन्य मानते हैं। राम वन में आने का कारण बताते हुए कुटिया बनाने के लिए उचित स्थान बताने को कहते हैं। मुनि उन्हें सभी ऋतुओं में सुखदायक चित्रकूट पर्वत पर निवास करने की सलाह देतें हैं। देवता कोल, भील के रूप में राम से मिलने और उनकी सहायता के लिए वहां पहुंचते हैं। विश्वकर्मा के साथ मिलकर सभी सुंदर कुटिया बनाते हैं। सभी राम की जय जयकार करते हैं। यहीं पर आरती के बाद दसवें दिन की लीला को विश्राम दिया जाता है।

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