सावन आया, बादल छाए लेकिन गायब है कजरी के बोल

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कईसे खेले जाईं हम कजरिया, बदरिया घेर आई ननदी
वाराणसी। कईसे खेले जाईं हम कजरिया, बदरिया घेर आई ननदी, कजरी गीत के यह बोल लोगों को आज भी सुनने को मिल ही जाते हैं। सावन की हरियाली, बारिश की फुहारों के बीच जगह-जगह झूले लगते और लगाए जाते हैं। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध और डिजिटल क्रांति के इस दौर में सावन तो है लेकिन कजरी अब मंचों तक सिमट कर रह गई है। 

वह भी एक जमाना था। जब विवाहिताएं अपने ससुराल से मायके चली आती रहीं। पुरानी सखियों से मेल-मुलाकात तो होती ही थी पेड़ की डालों पर झूले डालकर पेंग मारती सखियां झूले झूला करती थी। खूब हंसी ठिठोली होती रही, लेकिन अब सब सपना जैसा लगने लगा है। कहीं राधा-कृष्ण, राम-सीता और शिव-पार्वती से जुड़े प्रसंगों से जुड़े कजरी के गीत लोगों के मन को भाते थे। आज सावन माह शुरू हुए पांच दिन बीत गए। पहला सोमवार भी बीत रहा है और उमड़ते-घुमड़ते बादल बारिश की आस में पसीने बहा रहे लोगों के जी को तरसा रहे हैं। कहा सावन में बारिश में भीगते शिवभक्तों की टोलियां जयकारे लगाते मस्ती में शिव मंदिरों में दर्शन करने जाती थी, लेकिन इस बार शिवभक्त बारिश के एक बूँद पानी को भी तरस गए। 

चिलचिलाती धूप में देश-विदेश से श्रीकाशी विश्वनाथ धाम आए दर्शनार्थियों का कुछ ऐसा ही हाल रहा। लेकिन प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाओं के लोगों ने इनकी प्यास बुझाने की व्यवस्था कर रही थी। चिलचिलाती धूप, पसीने से तर बतर होने के बावजूद शिवभक्तों की आस्था में कोई कमी तो नही आई लेकिन इंद्रदेव की निष्ठुरता भक्तों का सहन नही हो पा रही थी।

काशी के हर मोहल्ले कभी कजरी के गीतों से गुलजार होते रहे। सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित होते रहे। बनारस के साथ मिर्जापुर की कजरी दुनिया में मशहूर है। अब मिर्जापुर में भी इस विधा को कुछ ही परिवार संजो रहे हैं। गांवों, मोहल्लोें की कजरी की मस्ती अब मोबाइल, कम्प्यूटर और लैपटाप में सिमट कर रह गई है। कजरी की खासियत है कि वह सावन में ही लोगों के जी को अधिक भाते हैं, लेकिन मेघराज लोगों को सावन  सावन में मेंहदी हथेलियों पर सजने लगती हैं जो डिजिटल क्रांति के इस दौर में भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। 

टैटू का दौर भी तेज हो गया है लेकिन गांवों के माटी की सुगंध गायब होती जा रही है। सावन का नाम सुनते ही मन हरा-भरा हो जाता है। उमंगें मन में हिलोरें भरने लगती हैं और बावरा मन हिंडोलों में झूलने को बेकरार हो जाता है। चारों तरफ हरे रंग में रंगी हुई प्रकृति हर किसी के मन को भाती है। प्रेम और विरह का जो भाव बरसात की बूंदों के साथ मन में बादलों की शक्ल में उमड़ता और घुमड़ता है उसका वर्णन संगीत के जरिए ही किया जा सकता है। कजरी और ठुमरी के बोल होठों पर सजते हैं तो सुनने वाला भी संगीत की बरसात में भीगने से बच नहीं पाता है। 

कजरी विरह और प्रेम की विविधताओं से भरी हुई है। विरह और प्रेम मिश्रित कजरी के बोल जब सावनी फुहारों के साथ फिजाओं में घुलते हैं तो लोगों को झूमने को विवश कर देती है। सावन में प्रियतम के न होने पर विरहिनी को न बादलों की उमड़-घुमड़ सुहाती है न सावन की फुहारें। वह काली घटाओं को देख तड़प उठती है। यह हाल हर नायिका का होता है। सावन में ही स्त्रियों के सारे भाव जीवंत हो उठते हैं। मगर इस सावन भी है और बिरहिनी भी लेकिन फुहारे गायब। सबकी निगाहें मौसम विज्ञानियों पर टिकी है जो रोज सूचनाएं देते हैं कि अब बरसेगा और तब बरसेंगे बादल। लेकिन अबतक तो सावन नही बरसे तब की आस बची है। 

चलिए दगाबाज मेघ को कोसने के साथ कजरी के कुछ बोल का आनंद लेते रहिए-  
राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा, साजे सकल शृंगार दियो नैना कजरा, पहिरो पचरंग सारी ऊपर श्याम चदरा...।
छैला छाय रहे मधुबन में
छैला छाय रहे मधुबन में सावन सुरत बिसारे मोर। 
मोर शोर बरजोर मचावै, देखि घटा घनघोर।। 
कोकिल शुक सारिका पपीहा, दादुर धुनि चहुंओर।
 झूलत ललिता लता तरु पर, पवन चलत झकझोर।।

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