काशी में इको-फ्रेंडली होलिका दहन: पर्यावरण संतुलन पर किया जा रहा फोकस, परंपरा को भी सुरक्षित रहने का किया जा रहा प्रयास

इस बार काशी में सबसे अधिक इको-फ्रेंडली होलिकाएं बनाई गई हैं। ग्रामीण इलाकों में भी इस बदलाव को अपनाया गया है, जिससे प्रदूषण मुक्त होली का संदेश दिया जा रहा है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि गोबर से बनी होलिका जलाने से प्रदूषण कम होता है और यह पारंपरिक संस्कृति को संरक्षित रखने का भी एक प्रयास है।
चेतगंज में पूरी तरह ग्रीन होलिका
चेतगंज स्थित होलिका दहन स्थल पूरी तरह से ग्रीन होली के रूप में स्थापित किया गया है। यहां वर्षों से लकड़ी या अन्य सामान जलाने की मनाही है। इस बार आयोजकों ने माता होलिका की 15 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित की है, जिसे उपलों से तैयार किया गया है। इसी तरह जंसा के कचनार क्षेत्र में 30 फीट ऊंचा कागज का पुतला आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस बार वाराणसी कमिश्नरेट में कुल 2,468 स्थानों पर होलिका दहन किया जाएगा। इसमें सर्वाधिक 939 होलिकाएं वरुणा जोन में, 794 गोमती जोन में और 734 काशी जोन में जलेंगी। प्रशासन ने सभी स्थानों की मॉनिटरिंग की व्यवस्था की है ताकि किसी भी अप्रिय घटना को रोका जा सके।
तगड़ी हुई सुरक्षा व्यवस्था, सीएम ने दिए निर्देश
होलिका दहन और होली के दौरान किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना को रोकने के लिए पुलिस प्रशासन ने सख्त निर्देश जारी किए हैं। पुलिस ने चेतावनी दी है कि होलिका दहन के बाद यदि कोई व्यक्ति सड़कों, गलियों या गंगा घाटों पर हुड़दंग करता पाया गया, तो उसे हिरासत में ले लिया जाएगा।
कमिश्नरेट पुलिस ने 1 मार्च से अब तक 46 लोगों के खिलाफ निरोधात्मक कार्रवाई की है। इसके अलावा, पूर्व में होलिका दहन और होली के दौरान हुए विवादों से संबंधित मामलों में 77 अभियुक्तों का सत्यापन भी किया गया है। प्रशासन ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि बिजली के तारों और घनी आबादी वाले इलाकों में होलिका दहन नहीं किया जाएगा। इसके अलावा एक दिन पूर्व मुख्यमंत्री ने भी बैठक कर होलिका के प्रति अलर्ट रहने के निर्देश दिए थे।
बनारस में पुनर्जीवित हो रही पारंपरिक होली की परंपरा
बनारस के कई इलाकों में इस बार लकड़ी, फूस और झाड़ की जगह केवल गाय के गोबर के उपलों से होलिका तैयार की गई है। यह परंपरा प्राचीन काल से प्रचलित थी और अब एक बार फिर से पुनर्जीवित हो रही है। स्थानीय लोगों का कहना है कि जैसे-जैसे लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो रहे हैं, वैसे-वैसे पारंपरिक तरीके फिर से अपनाए जा रहे हैं।
साहित्यकार भैयाजी बनारसी के पौत्र राजेश गुप्ता ने बताया कि चौदहवीं शताब्दी से ही बनारस में प्राकृतिक रूप से होली मनाने की परंपरा रही है। गहड़वाल काल में भी यहां पर्यावरण अनुकूल तरीके से होली मनाई जाती थी। हालांकि, समय के साथ लोगों ने लकड़ी और अन्य सामग्रियों का उपयोग करना शुरू कर दिया, लेकिन बनारस हमेशा से पारंपरिक पद्धति को अपनाने में अग्रणी रहा है।