50वां खजुराहो नृत्य समारोहः लयशाला में कुचिपुड़ी नृत्य शैली से रूबरू हुए नए कलाकार
भोपाल, 25 फरवरी (हि.स.)। यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल खजुराहो में आयोजित विश्व संगीत समागम 50वें खजुराहो नृत्य समारोह की अनुषांगिक गतिविधि लयशाला में रविवार को नई दिल्ली के सुप्रसिद्ध गुरु पद्मश्री जय रामाराव ने कुचिपुड़ी नृत्य शैली से नए कलाकारों को रूबरू कराया। उन्होंने सर्वप्रथम इस नृत्य का इतिहास बताते हुए कहा कि इस नृत्य का उद्भव आंध्रप्रदेश के एक गांव कुचिपुड़ी से हुआ।
उन्होंने बताया कि 14वीं शताब्दी में गांव के कुछ ब्राह्मण परिवारों ने इस नृत्य को करना प्रारंभ किया। पहले यह पुरुष प्रधान नृत्य था, परंतु 19वीं शताब्दी में इसे महिलाओं द्वारा भी किया जाने लगा। उन्होंने अपनी शिष्याओं वैष्णवी और लक्ष्मी के सहयोग से इस नृत्य के तकनीकी पक्ष पर बात की। इसमें सबसे पहले आधार पर बात हुई, उन्होंने बताया कि 200 बेसिक स्टेप्स होते हैं, जब कोई शिष्य इन सभी स्टेप्स को सीख जाता है तब जती पर पहुंचता है। जती की संख्या 100 से अधिक होती है। फिर उन्होंने 25 मुद्राओं के बारे में बताया जिसमें अभिनय नहीं केवल हस्त मुद्रा, ताल पर पद संचलन होता है। अंत में उन्होंने कथा आधारित नृत्य बताया, जिसमें यक्षगान, द्रौपदी चीरहरण, महिषासुर मर्दिनी की कथा को नृत्य भाव में प्रदर्शित किया।
कलावार्ता
50वां खजुराहो नृत्य समारोह प्रतिदिन की तरह ही रविवार को भी कलावार्ता के साथ प्रारंभ हुआ। इस अवसर पर नई पीढ़ी के साथ संवाद के लिये उपस्थित थे जयपुर के जाने-माने कला समीक्षक डॉ. राजेश व्यास, जिन्होंने ‘कला की अंर्तदृष्टि’ विषय पर अपनी बात रखी। शुरुआत में उन्होंने कहा कि कलाओं को जानने के लिये उसकी सतह तक नहीं, बल्कि अंदर तक जाना पड़ेगा। ब्रम्हृ का अर्थ है आत्मा से साक्षात्कार और सभी भारतीय कलाकार ब्रम्ह्म हैं। कलाएं यदि आत्मा की खोज नहीं कर सकतीं तो वे कालजयी नहीं बन सकती। कला आत्मा का अन्वेषण है।
उन्होंने नई पीढ़ी के कलाकारों को संबोधित करते हुये कहा कि यदि आपने यह सोच लिया कि हमें सब आ गया, तो फिर आपका कलात्मक विकास संभव नहीं है, बल्कि कुछ भी नहीं में तमाम संभावनायें छिपी हुई हैं। जब आप अपनी कला में लीन होकर स्वयं को विलीन कर देंगे तब आपकी सराहना होना प्रारम्भ हो जायेगा। उन्होंने कहा कि जब कोई कलाकार मंच पर अपनी कला का प्रस्तुतिकरण कर रहा होता है तो वह स्वयं नहीं रह जाता है, बल्कि उसमें समा जाता है जो वो प्रस्तुत कर रहा होता है। क्योंकि सर्जन के लिये स्वयं का विसर्जन आवश्यक है। मिथक पर बात करते हुये उन्होंने कहा कि जो अद्भुत और अलौकिक है वह मिथक है, हमारी भारतीय कलाएं भी अद्भुत और अलौकिक हैं। केवल कलाकार रहना जरूरी नहीं, बल्कि कलाओं की अंतर्दृष्टि होगी तब हम अलौकिक होंगे।
लोकरंजन
खजुराहो नृत्य समारोह परिसर में प्रतिदिन शाम पांच बजे से पारंपरिक कलाओं के राष्ट्रीय समारोह लोकरंजन का आयोजन किया गया है, जिसमें रविवार को महाराष्ट्र का सोंगी मुखौटा, आंध्रप्रदेश का गुसाड़ी एवं रामरथ पांडेय एवं साथी, रायबरेली द्वारा अवधी फाग गायन की प्रस्तुति दी गई। समारोह की शुरुआत रामरथ पांडेय एवं साथी, रायबरेली द्वारा अवधी फाग गायन से की गई। उन्होंने महारानी कय मोतिन मांग भरी..., सखियाँ श्याम बिना बृज सूना..., काउन हरे मोरी पीरा सजन बिन..., फागुनवा बीता जाय सोनरवा पायल हमरी न..., इनमा कौन राधिका रानी..., चंदन बिरवा, चंद बिरवा गोरी तोरे अंगना चंदन बिरबा... जैसे कई अवधी गीतों की प्रस्तुति दी। प्रस्तुति के दौरान 4 फीट ऊंचे और 25 किलो के नगाड़े का प्रयोग किया गया। अगले क्रम में सौंगी मुखौटा नृत्य की प्रस्तुति दी गई। सौंगी मुखौटा नृत्य महाराष्ट्र और गुजरात के बीच सीमांत गांवों में निवास करने वाले जनजातियों का मूल नृत्य है। अगले क्रम में आंध्रप्रदेश के गुसाड़ी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। गुसाड़ी नृत्य आंध्रप्रदेश में गोंड जनजाति के द्वारा किया जाता है। इनके द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों में इनकी संस्कृति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। पर्वों एवं किसी विशेष अवसर पर महत्व है।
हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश/प्रभात
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