छठ : लोक आस्था ही नहीं, परिजन स्वमिलन और स्वरोजगार का भी महापर्व

छठ : लोक आस्था ही नहीं, परिजन स्वमिलन और स्वरोजगार का भी महापर्व
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छठ : लोक आस्था ही नहीं, परिजन स्वमिलन और स्वरोजगार का भी महापर्व


छठ : लोक आस्था ही नहीं, परिजन स्वमिलन और स्वरोजगार का भी महापर्व


छठ : लोक आस्था ही नहीं, परिजन स्वमिलन और स्वरोजगार का भी महापर्व


बेगूसराय, 18 नवम्बर (हि.स.)। भारत विविधताओं का देश है, यहां हर पर्व-त्योहार बड़ी खुशी और उल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसमें बिहार का सुप्रसिद्ध छठ, लोक आस्था का महत्वपूर्ण पर्व जो भारतीय लोक संस्कृति और परंपराओं का अनूठा महापर्व है। छठ हमारी लोक आस्था ही नहीं, स्वजनों का स्वमिलाप और स्वरोजगार का साधन भी है।

जिसकी छाप छठ के छह दिनों में दिखती है, अब इसकी खनक विदेशों में भी देखने को मिलती है। सूर्योपासना का महत्वपूर्ण पर्व छठ अपनी सादगी, पवित्रता और पौराणिक लोक कथाओं के रूप में प्रचलित है। जिसमें भक्ति और आध्यात्म के लिए भव्य पंडाल से सुसज्जित मंदिर, साफ एवं सुंदर पोखर, तालाब, नदी का तट एवं आकर्षक मूर्ति की भी आवश्यकता होती है।

जिसमें छठ पर्व के लिए बांस से बने सूप, अब पीतल का सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तन, गन्ने, गुड़, अरवा चावल, गेहूं के आटे से बना ठेकुआ, केला, सेव, संतरा, शरीफा, अमरूद, पानी फल सिंघारा, नींबू, नारियल, अनानास, सुथनी, शकरकंद, पत्ते वाली हल्दी, अदरक, चावल के आटे का पीट्ठा, पान का पत्ता, तुलसी, बद्धि, अलता, अक्षत, सिंदुर, घी, बाती, धूप, दिए आदि से सूर्यदेव को पहले संध्या बाद में सुबह का अर्घ्य लोकगीत के माधुर्य से सराबोर वातावरण के बीच दिया जाता है।

जिसके लिए सामाजिक समरसता और पारिवारिक सौहार्द की भूमिका अहम हो जाती है। लोक आस्था का यह महत्वपूर्ण पर्व मनाने के लिए प्रवासी भारतीय सहित घर से दूर-दराज के राज्य, प्रांत, देश, शहर, विदेश में रहने वाले परिजन जरूर घर आते हैं। जिससे उनके स्वजनों का स्वमिलाप का केंद्र बिंदु हो जाता है। सालभर पहले ही लोग प्लान कर छठ में घर आने की तैयारी में रहते हैं। दूसरी ओर यह महापर्व स्वरोजगार का भी बड़ा माध्यम है।

बड़ा माध्यम इसलिए कहा जाता है कि छठ पर्व के निमित्त किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी एक दो महीने पहले ही पूर्ण तैयारी के साथ उपरोक्त वर्णित साम्रगी की उपलब्धता के लिए जीतोड़ करते हैं। खासकर सुथनी सौरखा आदि के लिए किसान खेती कर लोग को ससमय उपलब्ध कराते हैं। बाजार में पान का पत्ता, अगरबत्ती की बिक्री लोग बोल बोलकर करते हैं। ठेला, रिक्शा, सड़क किराने फुटपाथ की दुकाने सजकर लोगो को छठ पर्व से संबंधित महत्वपूर्ण साम्रगी उपलब्ध कराते हैं।

समाजनीति पर सार्थक चर्चा करने वाले शिक्षक कौशल किशोर क्रांति कहते हैं कि जो व्यक्ति वर्षभर बेरोजगार बैठे रहते हैं, उन्हे इन छह दिनो में व्यापक रोजगार मिलता है। चाहे वो साफ-सफाई हो, छठ का समान खरीद बिक्री का हो, पंडाल निर्माण का हो, मूर्ति निर्माण का हो, उन्हें किन्ही ना किन्ही रूप में रोजगार मिलता है। सुचिता एवं आस्था के चार दिवसीय महापर्व छठ की धूम मची हुई है। यह छठ सिर्फ बिहार की लोक संस्कृति का ही पर्व नहीं, बल्कि प्राचीन काल से ही गांव के लोकल फॉर वोकल होने का उत्सव भी है।

एक अनुमान के मुताबिक छठ पर्व के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा खर्च किए गए पैसे में से 50 प्रतिशत से अधिक सिर्फ गांव में पहुंचता है। उद्योगपतियों तक पहुंचता है तो सिर्फ रिफाइन, चीनी, सूखा मेवा एवं कुछेक श्रृंगार वस्तुओं पर खर्च की गई राशि ही। इसलिए एक ऐसा महापर्व है जो लोकल फॉर वोकल के सबसे प्राचीन उदाहरण है। यह एक ऐसी पूजा है जिसमें किसी पंडित की जरूरत नहीं होती है, जिसमें देवता प्रत्यक्ष हैं, डूबते सूर्य भी पूजे जाते हैं। व्रती-जाति समुदाय से परे हैं, केवल लोक गीत गाए जाते हैं।

पकवान घर पर बनते हैं, घाटों पर कोई ऊंच-नीच नहीं है। एक समान प्रसाद अमीर-गरीब सभी श्रद्धा से ग्रहण करते हैं। सबसे बड़ी बात है कि सामाजिक सौहार्द, सद्भाव, शांति, समृद्धि और सादगी के इस महापर्व का बाजार गांव की वस्तुओं से सजता है। सिर्फ बेगूसराय जिले में इस महापर्व में 25-30 करोड़ का कारोबार होता है, जिसमें 15 करोड़ से अधिक रुपया गांव के गरीब और किसानों तक पहुंचता है। जिस पैसों से यह महापर्व उनके लिए आर्थिक समृद्धि का त्यौहार साबित होता है। किसानों द्वारा उपजाए जाने वाले सुथनी की भले ही आम दिनों में कोई पूछ नहीं हो, लेकिन छठ में यह डेढ़ सौ रुपये किलो बिक रहा है।

हल्दी तो हल्दी, हल्दी के पत्ते भी किसानों को अतिरिक्त आय दे जाते हैं। बांस लगाने वाले किसान को भी इस पर्व का बेसब्री से इंतजार रहता है तथा मलिक समुदाय के लोग सूप एवं अन्य लोग डाला बनाने के लिए बड़ी संख्या में बांस खरीदते हैं। केराव (मटर), शरीफा, पानी फल सिंघारा, दीपक, अमरूद, केला, पान का पत्ता, फूल, माला, अदरक, मूली, गन्ना (ईंख), आम की लकड़ी, ओल, गुड़, डाभ नींबू, गोयठा तथा गाय का दुध भी किसी फैक्ट्री में नहीं बनता है, बल्कि गांव से ही आता है।

इस वर्ष भी गांव से लेकर शहर तक का बाजार ग्रामीण उत्पादों से भर चुका है। कहीं सुथनी बिक रहा है तो कहीं ओल, अल्हुआ, गन्ना, हल्दी का पता, पानी फल सिंघाड़ा, चीनी का सांच आदि और तमाम जगहों पर लोगों की भीड़ जुटी हुई है। कुल मिलाकर लोक आस्था के महत्वपूर्ण महापर्व छठ को स्वमिलन और स्वरोजगार का भी केंद्र कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं है। प्रवासी ट्रेन से भर-भर कर आ चुके हैं तो बाजार में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है। हिन्दुस्थान समाचार/सुरेन्द्र

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