लोक में राम, राम में लोक

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लोक में राम, राम में लोक


अयोध्या, 23 दिसम्बर (हि.स.)। ‘राम’ शब्द कहते ही वाल्मीकि के राम, तुलसी के राम का आध्यात्मिक रूप उभरकर सामने आता है, लेकिन लोक में जब ‘राम’ आते हैं तब वे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। कभी दुख में कही जाने वाली भाषा के साथ, कभी खुशी में उजास भाव के साथ। दरअसल, लोक के राम भाषा के माध्यम से लोगों की दिनचर्या का हिस्सा हैं। ये हिस्सा ऐसा भाग है जो लोकमानस के भीतर पानी की धार की तरह बह रहा है। यह हम सब जानते और मानते भी हैं कि भाषा संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संस्कृति के मूल्यों को, विश्वासों को, परंपरा को और रीति-रिवाजों को अपने भीतर संजोकर पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने का काम करती है भाषा।

मिथिलेशनंदिनी शरण जी महराज भी मानते हैं कि यह वह साधन है जिसमें संस्कृति पल्लवित होती है। अब भाषा भी कई स्तरों को अपने अंदर समाहित करके चलती है। भाषा के अंग के रूप में जहां शब्द होते हैं, वहीं शब्दों का मर्म और उन शब्दों को जीवित करने की ज़िम्मेदारी अर्थ की होती है। शब्द गढ़े जाते हैं संबंधित समाज द्वारा और उसमें अर्थ भरता है लोक। लोक मानस में जो कथा, चरित्र जिस रूप में बैठ जाता है, शब्दों के अर्थ उसमें उसी तरह से भरने का काम करते हैं। यहां हम बात कर रहे हैं शब्द ‘राम’ की। राम लोक मानस में तो हैं ही, लोक-व्यवहार का एक अभिन्न हिस्सा भी हैं। बात जब लोक व्यवहार की हो रही है तब जाहिर सी बात है, यह बात लोक व्यवहार की भाषा की हो रही है। भाषा में ‘राम’ शब्द की उपस्थिति कहां-कहां है, इसको देखा जा सकता है।

लोक जगत में शब्दों के नए अर्थ गढ़े जाते हैं। शब्दों के अर्थ का विस्तारीकरण भी किया जाता है। कई बार विस्तार यहां तक हो जाता है कि पारंपरिक लोकाचार-व्यवहार में शब्द रच-बस जाते हैं। लोक के ‘राम’ की बात करें तो यहां के राम भगवान के रूप से भी आगे उनके जीवन-मरण का है। यहां शिशु को राम ही माना जा रहा है। गीतों की भाषा में एक संसार है जहां जन्म देने वाली मां कौशल्या मानी जा रहीं हैं और शिशु तो राम है ही। अब जीवन चक्र में थोड़ा आगे आते हैं यानी उपनयन संस्कार में। यहां फिर से राम उस बालक के साथ समाहित हो जाते हैं। विवाह के गीतों की भाषा में भी दूल्हे में राम को देखा जाता हैं। जैसे- मिथिला के गीतों में हर दामाद राम का स्वरूप है। उसे राम कहकर ही संबोधित किया जा रहा है। एक बानगी देखिये- बता द बबुआ लोगवा देत काहे गारी, एक भाई गोर कहे एक भाई कारी।

संस्कारों-रिवाजों से इतर हर दिन की भाषा संसार में भी राम उपस्थित हैं। जैसे अभिवादन में राम-राम, जय रामजी की। जब जीवन-दर्शन की बात होती है तब कहा जाता है रामजी की माया, कहीं धूप कहीं छाया। त्योहारों में भी भाषायी आरोपण के जरिए होली खेले रघुवीर, खेतों में लगी फसल को जब पक्षी खाए तो उसमें भी ‘रामजी की चिरई’ यानी ये चिड़िया राम जी की है। हर संज्ञा के साथ विशेषण के रूप में भी राम हैं। एक और उदाहरण-पहले खासकर ग्रामीण इलाकों में जब कोई गिनती कर सामान देना होता था तब रामे एक, रामे दो... करके सामान को गिना जाता था। निश्चित रूप से ‘राम’ लोकजीवन में लोकधर्मिता के रूप में अधिक उपस्थित हैं। कहने का तात्पर्य है कि राम शब्द लोकजीवन, लोकभाषा का हिस्सा हैं। लोक की व्यंजनात्मक भाषा यानी लोकोक्तियों में तो राम शब्द की जैसे भरमार है। मुंह में राम बगल में छुरी, राम-राम जपना पराया माल अपना, जिनके राम धनी उनके कोई न कमी, राम भरोसे आदि। कुल मिलाकर देखा जाए तो भाषा में राम शब्द बहुलता के साथ अपनी धाक जमाये हुए हैं। राम शब्द को हटाकर अगर भाषा के लोक-व्यवहार की बात की जाए तो शायद त्रियांश यानि पूरे अंश का तीसरा भाग ही बचा रह जाएगा।

हिन्दुस्थान समाचार/कमलेश्वर शरण

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