खजुराहो के प्राचीन मंदिरों के वैभव की छाया में बुना जा रहा नृत्य परम्पराओं का ताना-बाना

खजुराहो के प्राचीन मंदिरों के वैभव की छाया में बुना जा रहा नृत्य परम्पराओं का ताना-बाना
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खजुराहो के प्राचीन मंदिरों के वैभव की छाया में बुना जा रहा नृत्य परम्पराओं का ताना-बाना


- नृत्य प्रस्तुति, कला विमर्श और गुरु-शिष्य संगम के नाम रहा 50वें खजुराहो नृत्य समारोह का तीसरा दिन

भोपाल, 22 फरवरी (हि.स.)। विश्व धरोहर खजुराहो में चल रहे 50वें खजुराहो नृत्व समारोह का तीसरा दिन नृत्य प्रस्तुति, कला विमर्श और गुरु शिष्य संगम के नाम रहा। खजुराहो के प्राचीन मंदिरों के वैभव की छाया में यह नृत्य समागम दिन-प्रतिदिन कलाओं के प्रति लोगों का प्रेम बढ़ाने का कार्य कर रहा है। प्रतिदिन उन्हें भारत की बहुरंगी सांस्कृतिक विरासत से साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। पिछले पांच दशकों से नृत्य एवं समकालीन कलाओं के रंगों को बिखेरता आ रहा खजुराहो नृत्य समारोह अपनी स्वर्ण जयंती पर कलारसिकों के हृदय को आनंद की अनुभूतियों से भर रहा है।

मुख्य मंच पर तीसरे दिन गुरुवार शाम नृत्य सभा की शुरुआत साक्षी शर्मा, दिल्ली के कथक नृत्य प्रस्तुति के साथ हुई। अपनी प्रस्तुति की शुरुआत आराध्य देव भगवान शिव की स्तुति कर की। इस शिव स्तुति की विशेषता थी कि यह राजस्थानी लोक परम्परा में गाई जाती है और कथक के गुरुओं ने इस रचना को कथक में सौंदर्यपूर्ण ढंग से पिरोया है। इसके पश्चात् तीन ताल विलंबित में नृत्य पक्ष की प्रस्तुति दी, जिसमें कुछ पारंपरिक बंदिशों को हस्तकों और पदचाप के माध्यम से प्रदर्शित किया। प्रस्तुति के अगले क्रम में एक ठुमरी की प्रस्तुति दी, जो नायिका सौंदर्य के ऊपर आधारित थी, इसके बोल थे 'लचक लचक चलत चाल इठलाती चतुर नार'। प्रस्तुति के अंतिम चरण में द्रुत तीन ताल की प्रस्तुति दी जिसमें परने, तिहाई एवं गत निकास की प्रस्तुति देकर विराम दिया।

कथक के सौंदर्य को देखने के बाद बारी थी ओडिसी नृत्य की, जिसे मंच पर लेकर आई कस्तूरी पटनायक, संकल्प फाउंडेशन फॉर आर्ट एंड कल्चर, दिल्ली-महारी। ओडिसी की सच्ची साधक कस्तूरी पटनायक ने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत मंगलाचरण से की। कृत्रत देव वंदनम राम अष्टकम स्तोत्र पर आधारित मंगलाचरण की कोरियोग्राफी और संगीत रचना स्वयं विदुषी कस्तूरी पटनायक ने की है। मंगलाचरण में, विदुषी पटनायक ने एक समग्र और उदात्त आह्वान प्रदान किया - ब्रह्मांड और ब्रह्मांडीय संपूर्ण को एक दिव्य नमस्कार। कलाकार सुस्त जीवनशैली में दिव्य रोशनी और आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए निरंतर प्रयास में रहता है।

दूसरी प्रस्तुति चारुकेशी पल्लवी की रही और इसे अनीता राउत, सुनीता बिस्वाल, शुभाश्री प्रधान, सुनीमा प्रधान, स्वास्तिका प्रधान और देबकी मलिक द्वारा प्रस्तुत किया गया। चारुकेशी पल्लवी राग चारुकेशी और ताल त्रिपुत्त पर आधारित थी। तीसरी प्रस्तुति कस्तूरी पटनायक और उनके छह शिष्यों द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस प्रस्तुति का नाम शिव पंचाक्षर स्तोत्र - नागेंद्र हरय त्रिलोचनाय, भस्मांग रागाय महेश्वराय था, जो आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित और भगवान शिव को समर्पित है, जो पूरे ब्रह्मांड को समाहित करता है। इस स्तोत्रम का संगीत पंडित भुवनेश्वर मिश्रा द्वारा तैयार किया गया है और नृत्य की कोरियोग्राफी विदुषी कस्तूरी पटनायक ने की है। उनकी चौथी प्रस्तुति महारी थी। महारी शब्द का संस्कृत में अनुवाद पवित्र नर्तकी या देवदासी है, जो इस कला रूप के आध्यात्मिक और धार्मिक जुड़ाव को दर्शाता है। उन्होंने अंतिम प्रस्तुति अभिनय आधारित थी, जिसका नाम था मनी बिमाने गोविंदा। इस प्रस्तुति ने पुरी में होने वाले चंदन जात्रा को दिखाया।

ओडिशा की परंपराओं और अनुशासन से रूबरू होते हुए नृत्य की यह अलौकिक यात्रा पहुंची केरल के मोहिनीअट्टम नृत्य पर, जिसका प्रदर्शन किया विद्या प्रदीप ने। उन्होंने सर्वप्रथम नट्टूवंगम की प्रस्तुति दी। इसके बाद चोलकेट्टू की प्रस्तुति दी, जिसे कोरियोग्राफ किया गुरु डॉ.नीना प्रसाद ने।

तीसरे दिन की नृत्य सभा की अंतिम प्रस्तुति सुप्रसिद्ध कथक कलाकार पद्मश्री पुरु दाधीच एवं हर्षिता शर्मा दाधीच एवं समूह, इंदौर की रही। कथक से शुरू हुआ नृत्य का यह सिलसिला कथक पर ही थमा। इस प्रस्तुति का नाम ऋतु गीतम था, जिसे लिखा और कोरियोग्राफ किया गुरु पुरु दाधीच ने। इस प्रस्तुति में उन्होंने छह ऋतुओं का नृत्याभिनय से वर्णन किया। इस प्रस्तुति में गीत और नृत्य रचना पुरु दाधीच की थी जबकि संगीत कार्तिक रामन का था। राग भूप कल्याण सारंग से लेकर बसंत बहार मल्हार और ध्रुपद खयाल ठुमरी से लेकर तमाम सांगीतिक चीजों से सजी यह प्रस्तुति खूब पसंद की गई। इस प्रस्तुति में स्मिता विरारी ने गायन, अश्विनी ने वायलिन, बांसुरी पर अनुपम वानखेड़े और तबले पर कौशिक बसु ने साथ दिया। जबकि नृत्य में हर्षिता दाधीच, दमयंती भाटिया, आयुषी मिश्र, सरवैया जैसलिन, पूर्वा पांडे, मुस्कान, अक्षता पौराणिक, डॉ सुनील सुनकारा, अक्षोभ्य भारद्वाज और कैलाश ने साथ दिया। वेशभूषा क्षमा मालवीय की थी और सूत्रधार स्वयं डॉ. पुरु दाधिच थे।

प्रदेश शासन, संस्कृति विभाग एवं उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी के साझा प्रयासों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग एवं स्थानीय प्रशासन के सहयोग से यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल खजुराहो में विश्वविख्यात 50वां खजुराहो नृत्य समारोह के तीसरे दिवस गुरुवार को कला के विविध आयामों का संगम हुआ। इस अवसर पर संस्कृति उप संचालक वंदना पाण्डेय और उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी के निदेशक जयंत भिसे ने आमंत्रित कलाकारों का स्वागत पुष्पगुच्छ भेंट कर किया।

कलावार्ता

50वां खजुराहो नृत्य समारोह का तीसरा दिन कला और कला समीक्षा पर सार्थक विमर्श से शुरू हुआ। कलावार्ता की दूसरी सभा की वक्ता थीं दिल्ली की जानी-मानी कला समीक्षक शशिप्रभा तिवारी। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि जिस तरह योगी समाधि लेता है, उस ही तरह कलाकार भी मन की समाधि से कला की अभिव्यक्ति कर पाता है और पीढ़ियों तक आनंद प्रेषित कर पाता है। कला दो पदों का मेल है, एक तो क्रिया और दूसरा ज्ञान। क्रिया अभिव्यक्ति है और ज्ञान दर्शन, वेद, संस्कृति, जीवन और अनुभव से प्राप्त होता है। एक कलाकार अपने नृत्य के माध्यम से सम्पूर्ण जीवन को दर्शा जाता है, जिसमें संगीत, साहित्य, वांगमय, चित्रकारी शामिल होती है। कलाएं अमर होती हैं। भारतीय संस्कृति सदैव देने की बात करती है लेने की नहीं। कलाकार दो या चार साल में नहीं, बल्कि लंबी यात्रा के बाद उस स्तर तक पहुंच पाता है जहां वह संपूर्णता को अभिव्यक्त कर पाता है।

लयशाला

लयशाला खजुराहो नृत्य महोत्सव की एक ऐसी अनुषांगिक गतिविधि है जिसमें भारतीय नृत्य शैलियों के श्रेष्ठ गुरुओं के साथ शिष्यों का संवाद होता है। गुरुजन इस दौरान व्याख्यान सह प्रदर्शन करते हैं। इसी क्रम में लयशाला की दूसरी सभा में गुरुवार को सुप्रसिद्ध नृत्यांगना और पंडित बिरजू महाराज की पुत्री ममता महाराज कालका बिंदादीन घराने की खुबियों को बता रहीं थीं। इसे कथक के लखनऊ घराने के नाम से भी जाना जाता है।

उन्होंने बताया कि बिरजू महाराज ने अपने पिता अच्छन महाराज चाचा लच्छू महाराज और शंभू महाराज से जो सीखा उसमें अपना जोड़कर उसे और समृद्ध किया। एक जमाने में सम पर आने के चलन गिने चुने थे लेकिन बिरजू महाराज ने सम पर आने के कई तरीके निकाल दिए। केवल धा पर पैर पटक कर ही नहीं बल्कि आंखों के चलन गर्दन की जुंबिश से भी सम पर आया जा सकता है ये बात बिरजू महाराज ने सिखाई। उन्होंने कहा कि बिरजू महाराज एक श्रेष्ठ रचनाकार भी थे। भावों को वे गढ़ते थे। उन्होंने अपनी भतीजी और शिष्य रागिनी और यशस्विनी के जरिए बिरजू महाराज की रचनाओं पर डिमॉन्सट्रेशन भी दिया। उन्होंने उपज अंग भी दिखाया।

इस अवसर पर मणिपुरी नृत्य शैली की प्रख्यात कलाकार कलावती देवी एवं डॉ. बिंबावती देवी ने भी इसी तरह डिमॉन्सट्रेशन देकर मणिपुरी नृत्य की विशेषताएं बताई। उन्होंने बताया कि वैष्णव संप्रदाय द्वारा 18वीं सदी में विकसित यह नृत्य अदभुत है। इसमें नर्तक ज्यादातर प्रेम प्रसंगों को प्रदर्शित करते हैं। ये कथाएं विष्णुपुराण भागवत गीत गोविंद से ली जाकर नृत्य में पिरोई गईं हैं। इस नृत्य में शरीर धीमी गति से चलता है। इसमें सांकेतिक भव्यता के दर्शन होते हैं।

हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश/प्रभात

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