Thiruvarppu Krishna Mandir : आखिर क्यों इस मंदिर के कपाट खोलने के लिए तोड़ना पड़ता है ताला?

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देश में 6 और 7 सितंबर दोनों दिन जन्माष्टमी मनाई जा रही है। देश में भगवान श्रीकृष्ण के काफी मंदिर हैं और इनके बारे में आप जानते भी होंगे, लेकिन देश में एक ऐसा भी मंदिर है जिसके कपाट सूर्यग्रहण हो या चंद्रग्रहण कभी बंद नहीं किए जाते। यह मंदिर है केरल के तिरुवरप्पु में तिरुवरप्पु कृष्ण मंदिर, जो मीनाचिल नदी के किनारे बसा है और अपने सुंदर आर्किटेक्चर के लिए फेमस है। हालांकि मंदिर की सबसे खास बात यहां पर स्थापित श्रीकृष्ण की मूर्ति है। 

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मंदिर की ये है कहानी 
मंदिर को ग्रहण के दिन बंद नहीं करने के पीछे भी एक कहानी है। कहा जाता है कि एक दिन सूर्यग्रहण के दिन इस मंदिर को बंद रखा गया, लेकिन अगले दिन मंदिर के पुजारी जब गर्भगृह के अंदर आए तो वह श्रीकृष्ण की मूर्ति को देखकर दंग रह गए क्योंकि वह पहले से काफी ज्यादा पतली लग रही थी। शंकराचार्य जब यहां पर पहुंचे तो उन्होंने बताया कि श्रीकृष्ण को एक दिन भूखा रखने के कारण ऐसा हुआ। तब से इस मंदिर में समय पर श्रीकृष्ण को दस बार भोग लगाया जाता है।
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रात को लगाया जाता है भोग
भगवान को सबसे पहला भोग रात 3 बजे लगाया जाता है और इसके लिए मंदिर के दरवाजे रात के 2 बजे खोल दिए जाते हैं। यही नहीं जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो पुजारी चाबी के साथ हाथ में हथौड़ा लेकर जाते हैं क्योंकि अगर चाबी से ताला ना खुले तो उसको तोड़ दिया जाए और समय पर मंदिर के कपाट खोल दिए जाएं। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने जब कंस का वध किया था तो उनको बहुत ज्यादा भूख लग रही थी और इसलिए समय पर उनको भोग लगाया जाता है। अगर समय पर भगवान को भोग नहीं लगता तो उनकी मूर्ति पतली होने लगती है और उनके कमर की पट्टी भी नीचे तक खिसक जाती है। 

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इस मंदिर से जुड़ी बहुत सी कहानी हैं, लेकिन इन सभी से सबसे ज्यादा प्रचलित है विल मंगलयम स्वामीयर की। करीब 1500 साल पहले विल मंगलयम स्वामीयर एक नाव में सवार होकर नदी से गुजर रहे थे, लेकिन अचानक उनकी नाव रुक गई। काफी कोशिशों के बाद भी जब नाव नहीं चली तो वह उससे उतरे, लेकिन तभी सारा पानी सूख गया और उनको एक 5 फीट की भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति दिखाई दी। उन्होंने उस मूर्ति को उठाया और आगे बढ़े। कुछ समय बाद तिरुवरप्पु गांव पहुंचने के बाद उन्होंने इसे एक स्थान पर रखा और खुद स्नान करने चले गए। जब वह वापस लौटे और मूर्ति को उठाने की कोशिश की तो वह उसे हिला भी नहीं सके। जिसके बाद इसी जगह पर भगवान श्रीकृष्ण का भव्य मंदिर बना हुआ है। 

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नदी में कैसे पहुंची मूर्ति
ऐसा माना जाता है कि इस मूर्ति का संबंध महाभारत काल से है और इसे खुद श्रीकृष्ण ने पांडवों को भेंट किया था.तो फिर यह नदी में कैसे जा पहुंची, जिसके जवाब में कई लोग मानते हैं कि अपने राज्य को कौरवों से हारने के बाद जब पांडव वनवास जा रहे थे तो उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना कि वह उनको अपनी एक मूर्ति दे दें, जिससे उन्हें यह आभास होता रहेगा कि उनके इस सफर में भगवान उनके साथ है। उनकी प्रार्थना को मानते हुए श्रीकृष्ण ने उनको यही मूर्ति भेंट की थी। अपने वनवास के दौरान उन्होंने 14 साल इसकी पूजा की और वनवास के खत्म होने के बाद वह इसको ले जाने लगे, लेकिन जहां पर वह रुके थे वहां के मछुआरों ने उनसे मूर्ति को वहीं रहने देने की प्रार्थना की, जिसके बाद उन्होंने इस मूर्ति को उनके गांव में स्थापित कर दिया। मछुआरों ने कई साल इसकी पूजा की, लेकिन अचानक उन पर संकट आने लगे। 

परेशान होने के बाद वह एक साधु के पास पहुंचे तो उनको पता चला कि वह श्रीकृष्ण की पूजा सही से नहीं कर पा रहे हैं और ऐसे में उनको इसे विसर्जित कर देना चाहिए। मछुआरों ने भी ऐसा ही किया, जिसके बाद कई सालों तक यह पानी में डूबी रही और उसके बाद विल मंगलयम स्वामीयर को मिली। 

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